पाथेय (हिंदी)
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मराठी पाथेयासाठी उघडा http://www.patheyinmarathi.blogspot.in/ )
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प्रस्तावना
यात्रा में काम आने वाले खाद्यपदार्थ को पाथेय कहते है, परंतु यह तो जीवन यात्रा का पाथेय है |
अर्थात केवल उदरभरण इस पाथेय का लक्ष नहीं है
| यह मन तथा बुद्धी
का पोषण करने हेतू जुटाया गया है| ध्येयवाद, श्रद्धा, निष्ठा, परिश्रम, दृढता, लोगों को जोड़ना आदि का पाठ पढ़ाने वाले ये परमपूज्यनीय डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवारजी के अमृतवचन हैं|
यह छोटीसी पुस्तिका बड़ी आसानी से जेब में रखी जा सकती हैं| उतनीही सहजतासे वह पढ़ीं जा सकती हैं और ह्रदय में भी धारण की जा सकती हैं| वे शब्द सामान्य नहीं हैं| उनके द्वारा डॉक्टरजी के जीवन का सार-सर्वस्व प्रकट हुआ है| यह अमूल्य सिद्धांत रत्नों की मंजूषा हैं| अविरत आत्मभोजन खिलाने वाली यह सूर्यभगवान की दी हुई थाली हैं| यह राम-बाणों से भरा हुआ अक्षय तुणीर हैं| आलस्य, हताशा, स्वार्थान्तता, संकुचित वृत्ति, बुद्धिभेद, अकर्मण्यता, आदि राक्षसों का नाश करने का सामर्थ्य इस ग्रन्थ की एक-एक सूक्ति में है|
कोई भी पृष्ठ आप खोले, कोई भी छोटासा वचन पढ़े, ह्रदय में नया प्रकाश पाए, और नवचेतना के साथ कार्य में जुट जाए, ऐसा ही ग्रंथ का स्वरुप है|
हमें आशा और विश्वास है की हमारा यह प्रयास सबको प्रिय प्रतीत होगा|
- प्रकाशक
संकलन :भैयाजी सहस्रबुद्धे उर्फ प्र. ग. सहस्रबुद्धे
हिंदू राष्ट्र
१. हिंदू जाती का सुख ही मेरा और मेरे परिवार का सुख हैं| हिंदू जाती पर आने वाली विपत्ति हम सभी के लिए महासंकट है और हिंदू जाती का अपमान है| ऐसी आत्मीयता की हिंदूमात्र के रोम-रोम में व्याप्ती होनी चाहिए| यहीं राष्ट्रधर्म का मूलमंत्र हैं|
२. केवल भूमि के किसी टुकड़े को तो 'राष्ट्र' नहीं कहते | एक विचार, एक आचार,एक सभ्यता एवम् एक परंपरा से, लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं, उन्हीं लोगों से राष्ट्र बनता है| इस देश को हमारे ही कारण 'हिन्दुस्थान' नाम दिया गया है|
३. हम लोगों में चाहे जितने मतभेद ऊपर दिखाई दे,परंतु हम सारे हिंदू तत्त्वतः एक राष्ट्र हैं| हमारी धमनियों में एक-सा रक्त (याने खून) बह रहा है| समाजरचना और तत्त्वज्ञान भी एक हैं | इस प्रकार हमारे संघटना की नींव सास्त्रशुद्ध है |
४. इंग्लैंड अंग्रेजों का, जर्मनी जर्मनों का, फ्रांस फ्रांसिसियों का देश है| इस बात कों उपर्युक्त देशों के निवासी सहर्ष घोषित करतें है | किन्तु इस अभागे हिन्दुस्थान के स्वामी हिंदू,स्वयम अपने को इस देश के अधिकारी कहने का साहस नहीं करते |
५. दूसरों में सहायता की आशा करना या भीख माँगना निरी दुर्बलता का चिन्ह है | इसलिए स्वयंसेवक बंधुओ, निर्भयता के साथ घोषणा करो की हिन्दुस्थान हिन्दुओंकाही है | अपने मन की दुर्बलता को बिलकुल दूर भगा दो, हम यह नहीं कहते की गैर-हिंदू यहाँ न रहें | परंतु अन्य लोग इस बात को कभी न भूलें की वे हिन्दुओं के हिन्दुस्थान में रहते हैं और उन्हें हिन्दुओं के अधिकारों पर अतिक्रमण करने का कोई अधिकार नहीं है | हमें ऐसी परिस्थिती उत्पन्न कर देनी चाहिए की हमारे सिरपर दूसरें लोग संवार न हो |
[यहाँ १९६० के दशक में हुई एक घटना बताना योग्य होगा | एक पत्रकारने संघके तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजीको अंग्रेजी में पूछा: "भारत सिर्फ हिंदूओं के लिए है क्या?" ("Is India only for Hindus?") इस पर गुरुजीने उत्तर दिया: "सिर्फ भारत हिंदुओं के लिए है |" ("Only India is for Hindus".)]
६.हमारा यह प्यारा हिन्दुस्थान, यह पवित्र हिंदूराष्ट्र हमारे कर्तव्यभूमि है | अतः हम लोगोंने अपने राष्ट्रीय हित की रक्षा के लिए, इस संघ को स्थापित किया है | इसके द्वारा हम राष्ट्र की हर तरह से उन्नति करना चाहते है |
७. किसी घने जंगल को, जलाकीन मरुस्थल को, या निर्जन भूभाग को राष्ट्र नहीं कहते | जिस भूभाग पर एक विशेष जाति के, विशेष धर्म के, विशेष परम्परावाले, विशेष विचारधारावाले, और विशिष्ट इतिहासवाले लोग एकत्रित रहते हैं वह भूभाग राष्ट्र माना जाता है | तथा वह राष्ट्र उन्हीं लोगों के नाम से पहचाना जाता है |
८. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू राष्ट्र की रक्षा के लिए हुआ है | इसलिए जो-जो बातें इस संस्कृति का प्रतीक है, उनकी संघ रक्षा करेगा | भगवा ध्वज हिंदू धर्म और हिंदू राष्ट्र का प्रतीक होने के कारण हमारा ध्वज मानना संघ का कर्तव्य है |
९. संघ को नया झंडा खड़ा नहीं करना है | भगवा ध्वज का निर्माण संघ ने नहीं किया | संघ ने तो उस परमपवित्र भगवा ध्वज को अपने ध्वज के रूप में स्वीकार किया है, जो की हज़ारो वर्षो से राष्ट्र और धर्म का ध्वज था | भगवा ध्वज के पीछे इतिहास है, परंपरा है, वह हिंदू संस्कृति का द्योतक है |
१०. शिवाजी महाराज को आदर्श के रूप में सन्मुख रखने से,उनके द्वारा हिंदुत्व की रक्षा करने हेतु किए गए सभी पराक्रमों का हमें स्मरण हो आता है | जो स्फूर्ति हमें भगवा ध्वज के दर्शनों से प्राप्त होती है, वहीं स्फूर्ति श्री छत्रपती शिवाजी महाराज के चरित्र से मिलती है | जो भगवा ध्वज धूल में गिरा था, उसी को उन्होंने ने पुन: ऊँचा उठाया, फहराया और हिंदू पद पादशाही की प्राणप्रतिष्ठा की | अतः यदि आप किसी व्यक्ति को ही आदर्श मानना चाहें तो श्री शिवाजी को ही अपना आदर्श रखें |
११. संघ ने किसी व्यक्तिविशेष को अपने गुरुस्थान पर न रख कर परमपवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु माना है| इसका कारण यह है की,व्यक्ति चाहे जितना महान हो तो भी निरंतर अचल और पूर्ण नहीं रह सकता | इसलिए व्यक्तिविशेष को गुरु मानकर, अपनी स्थिती विचित्रसी कर लेने की जगह, हमने उस जयिष्णु और प्रभविष्णु भगवा ध्वज को ही गुरु माना है | उसमें हमारा इतिहास, परम्परा, राष्ट्र के लिए किया हुआ स्वार्थत्याग समाया हुआ है | इतनाही नहीं,राष्ट्रीयत्व के सभी मूल तत्त्वों का उसमें समन्वय हुआ है |
१२. जिस ध्वज को देखतें ही हमारे राष्ट्रका संपूर्ण इतिहास, संस्कृति एवम् परम्परा हमारी आखों के सामने खड़े हो जाते है, जिसे देखते ही हमारे हृदय की भावनाए उमड पडती हैं, तथा हृदय में एक विशिष्ट स्फूर्ति का संचार हो जाता है, ऐसे भगवा ध्वज को हम अपना गुरु मानते है |
३. हम लोगों में चाहे जितने मतभेद ऊपर दिखाई दे,परंतु हम सारे हिंदू तत्त्वतः एक राष्ट्र हैं| हमारी धमनियों में एक-सा रक्त (याने खून) बह रहा है| समाजरचना और तत्त्वज्ञान भी एक हैं | इस प्रकार हमारे संघटना की नींव सास्त्रशुद्ध है |
४. इंग्लैंड अंग्रेजों का, जर्मनी जर्मनों का, फ्रांस फ्रांसिसियों का देश है| इस बात कों उपर्युक्त देशों के निवासी सहर्ष घोषित करतें है | किन्तु इस अभागे हिन्दुस्थान के स्वामी हिंदू,स्वयम अपने को इस देश के अधिकारी कहने का साहस नहीं करते |
५. दूसरों में सहायता की आशा करना या भीख माँगना निरी दुर्बलता का चिन्ह है | इसलिए स्वयंसेवक बंधुओ, निर्भयता के साथ घोषणा करो की हिन्दुस्थान हिन्दुओंकाही है | अपने मन की दुर्बलता को बिलकुल दूर भगा दो, हम यह नहीं कहते की गैर-हिंदू यहाँ न रहें | परंतु अन्य लोग इस बात को कभी न भूलें की वे हिन्दुओं के हिन्दुस्थान में रहते हैं और उन्हें हिन्दुओं के अधिकारों पर अतिक्रमण करने का कोई अधिकार नहीं है | हमें ऐसी परिस्थिती उत्पन्न कर देनी चाहिए की हमारे सिरपर दूसरें लोग संवार न हो |
[यहाँ १९६० के दशक में हुई एक घटना बताना योग्य होगा | एक पत्रकारने संघके तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजीको अंग्रेजी में पूछा: "भारत सिर्फ हिंदूओं के लिए है क्या?" ("Is India only for Hindus?") इस पर गुरुजीने उत्तर दिया: "सिर्फ भारत हिंदुओं के लिए है |" ("Only India is for Hindus".)]
६.हमारा यह प्यारा हिन्दुस्थान, यह पवित्र हिंदूराष्ट्र हमारे कर्तव्यभूमि है | अतः हम लोगोंने अपने राष्ट्रीय हित की रक्षा के लिए, इस संघ को स्थापित किया है | इसके द्वारा हम राष्ट्र की हर तरह से उन्नति करना चाहते है |
७. किसी घने जंगल को, जलाकीन मरुस्थल को, या निर्जन भूभाग को राष्ट्र नहीं कहते | जिस भूभाग पर एक विशेष जाति के, विशेष धर्म के, विशेष परम्परावाले, विशेष विचारधारावाले, और विशिष्ट इतिहासवाले लोग एकत्रित रहते हैं वह भूभाग राष्ट्र माना जाता है | तथा वह राष्ट्र उन्हीं लोगों के नाम से पहचाना जाता है |
८. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू राष्ट्र की रक्षा के लिए हुआ है | इसलिए जो-जो बातें इस संस्कृति का प्रतीक है, उनकी संघ रक्षा करेगा | भगवा ध्वज हिंदू धर्म और हिंदू राष्ट्र का प्रतीक होने के कारण हमारा ध्वज मानना संघ का कर्तव्य है |
९. संघ को नया झंडा खड़ा नहीं करना है | भगवा ध्वज का निर्माण संघ ने नहीं किया | संघ ने तो उस परमपवित्र भगवा ध्वज को अपने ध्वज के रूप में स्वीकार किया है, जो की हज़ारो वर्षो से राष्ट्र और धर्म का ध्वज था | भगवा ध्वज के पीछे इतिहास है, परंपरा है, वह हिंदू संस्कृति का द्योतक है |
१०. शिवाजी महाराज को आदर्श के रूप में सन्मुख रखने से,उनके द्वारा हिंदुत्व की रक्षा करने हेतु किए गए सभी पराक्रमों का हमें स्मरण हो आता है | जो स्फूर्ति हमें भगवा ध्वज के दर्शनों से प्राप्त होती है, वहीं स्फूर्ति श्री छत्रपती शिवाजी महाराज के चरित्र से मिलती है | जो भगवा ध्वज धूल में गिरा था, उसी को उन्होंने ने पुन: ऊँचा उठाया, फहराया और हिंदू पद पादशाही की प्राणप्रतिष्ठा की | अतः यदि आप किसी व्यक्ति को ही आदर्श मानना चाहें तो श्री शिवाजी को ही अपना आदर्श रखें |
११. संघ ने किसी व्यक्तिविशेष को अपने गुरुस्थान पर न रख कर परमपवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु माना है| इसका कारण यह है की,व्यक्ति चाहे जितना महान हो तो भी निरंतर अचल और पूर्ण नहीं रह सकता | इसलिए व्यक्तिविशेष को गुरु मानकर, अपनी स्थिती विचित्रसी कर लेने की जगह, हमने उस जयिष्णु और प्रभविष्णु भगवा ध्वज को ही गुरु माना है | उसमें हमारा इतिहास, परम्परा, राष्ट्र के लिए किया हुआ स्वार्थत्याग समाया हुआ है | इतनाही नहीं,राष्ट्रीयत्व के सभी मूल तत्त्वों का उसमें समन्वय हुआ है |
१२. जिस ध्वज को देखतें ही हमारे राष्ट्रका संपूर्ण इतिहास, संस्कृति एवम् परम्परा हमारी आखों के सामने खड़े हो जाते है, जिसे देखते ही हमारे हृदय की भावनाए उमड पडती हैं, तथा हृदय में एक विशिष्ट स्फूर्ति का संचार हो जाता है, ऐसे भगवा ध्वज को हम अपना गुरु मानते है |
संगठन का महत्त्व
१३. ऐसी कोई भी राष्ट्रीय आकांक्षा नहीं है, जो संघटन द्वारा प्राप्त न होती हो | हम लोग हमेशा राष्ट्रीयता की दृष्टी से ही विचार करते है | चौबीसों घंटे वहीं राष्ट्रीयता के विचार हमारें मनो में गुंजते रहें,इसीलिए संघ का नाम 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' रखा गया है | जिन महानुभावों को ज़रा भी संदेह हो, की संघटन से आखिर कुछ काम बनता भी है या नहीं, उन्हें मैं दावे के साथ बता दूँ की संघटन के बल पर सारी राष्ट्रीय समस्याए हल हो सकती हैं |
१४. शक्ति न हो तो तुम्हारी पुकार पर कोई ध्यान नहीं देगा और न ही पर्वा करेगा | कारण वे जानते हैं की यह दुबला जीव हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता |
१५. संघटन में असीम सामर्थ्य है | परंतु उसकी अनुभूति प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में होनी चाहिए | हम संघटन करतें हैं क्योंकि हम जानते हैं की अन्य सब कामों से संघटन ही श्रेष्ठ है |
१६. संसार में शांति और सुव्यवस्था के लिए समस्थिती, संतुलन अर्थात् बेलेन्स की आवश्यकता होती है | जहां बलहीन और बलवान एकत्र रहते है वहां अशान्ति अवश्यमभावी है | दो शेर एक दूसरे को नहीं छेड़ते | किन्तु शेर और बकरी यदि एक स्थानपर आ जाते हैं तो वहां क्या होता है यह बताने की जरुरत नहीं है | समान बलवालों में ही शांति तथा प्रेम रह सकता है |
१७. केवल इच्छा मात्र से ही कार्य नहीं हुआ करता | साक्षात् भगवान को भी दशावतार लेकर, मनुष्यशक्ति के द्वारा ही कार्य करना पडा | इस शक्ति को कुछ लोग पशुशक्ति कहते हैं | परंतु मेरी समझ में नहीं आता की धर्मरक्षा तथा जन-कल्याण के लिए जो शक्ति काम में लाई जाती है, उस पवित्र शक्ति को लोग पशुशक्ति कैसे कह सकते है?
१८. वास्तव में यह शक्ति तो उतनी ही पवित्र एवम् मंगलमय है, जितनी की आध्यात्मिक शक्ति | हमें हिंसा करने के लिए बलवान नहीं बनना है | किन्तु संसार की सारी हिंसा और अत्याचार सदा के लिए मिटा देने हेतू ही हमें सामर्थ्य सम्पादन करना है |
१९. हम में जो सामाजिक भावना का अभाव है, वहीं हमारी क्षति का कारण बन गया है | हमें तो केवल अपनी ही व्यक्तिगत चिंता बनी रहती है | हम अपने समाज तथा संस्कृति का विचार तन मन में नहीं लाते है | यदि हम इस दुखदायी परिस्थिती को बदल देना चाहते है, तो हमें अपने समाज का संगठन करना ही होगा |
२०. कठिनाइयां सभी को हैं | गृहस्थी सभी के पीछे लगी है | यदि सभी अपनी-अपनी कठिनाइयों का रोना रोने लगेंगे, तो हम दूसरों के भक्ष्य बनने से बच न सकेंगे | संघकार्य को जब बातों से अधिक महत्त्व का समझ कर यदि हम अपने आपको प्राणपण से इस कार्य में लगा दे, तो कल कम से कम हमारी संतान हिंदू के रूप में जीवित रह सकेगी | [ प. पू. डॉकटरजी ने यह कहने के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश, काश्मीर और अफगानिस्तान में से हिंदू समाप्त हो गए | ७० साल पहले भी अफगानिस्तान में १,५०,००० हिंदू और २५,००० सिख थे, जो की आज केवल कुछ सौ हैं | ]
२१. संगठन में एक मनुष्य दुसरे मनुष्य से कुछ भी कहता नहीं | केवल स्वयं कार्य करता जाता है | जहां बारबार कहने सुनने के मौके आते हो, वहां यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए की काम नहीं हो रहा है | संघ के स्वयंसेवक आपस में कुछ नहीं कहते बोलते हैं | उनके अंत:करण, उनकी भाषा हृदय की भाषा होती है | और वे एक दुसरे की ओर केवल देखते हुए, मूक रहते हुए, कार्य कर सकते हैं | केवल परस्पर दृष्टिपात से ही वह अपने विचार आपस में एक दूसरों को समझा सकते हैं |
२२. आज दुनिया में चारो ओर अन्याय, अत्याचार और अधार्मिकता का स्वच्छाद साम्राज्य फैला हुआ है | वह जब तक नष्ट नहीं होगा, तब तक हम चाहे जितना जप-तप करे , मोक्ष का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता |
२३. संगठन ही राष्ट्र की प्रमुख शक्ति होती है | संसार में कोई भी समस्या हल करनी हो तो वह शक्ति के आधार पर ही हो सकती है | शक्तिहीन राष्ट्र की कोई भी आकांक्षा कभी भी सफल नहीं होती | परंतु सामर्थ्यशाली राष्ट्र कोई भी काम, जब चाहे तब, अपनी इच्छानुसार कर सकता है |
२४. किसी धनी व्यक्ति का उदाहरण लीजिए | वह जब भी चाहें, अपनी इच्छा की तृप्ति कर सकता है | यदि वह आलिशान बंगला बनवाना चाहे तो तुरंत बनवा सकता है | 'पहले पैसा कमा लूं, धनवान बनूं, फिर बंगला बनवाऊँ', ऐसा उसे सोचना नहीं पडता है | बंगला तैयार हो जाने पर यदि उसकी इच्छा हुई की इस बंगले के आसपास सुन्दर सी पुष्पवाटिका याने बगीचा तैयार हो, तो वह भी तुरंत तैयार हो जाती है | किसी भी काम के लिए उसे पग-पग पर रुकना नहीं पडता | ठिक यहीं बात शक्तिशाली राष्ट्र के लिए भी लागू होती है, सारे प्रश्नो तथा समस्याओं का अंतिम उत्तर शक्ति ही है |
२५. यदि केवल मात्र कहने के लिए संघटन हो, अर्थात दिखावटी हो, तो उससे कोई भी लाभ नहीं हो सकता | कोरे आडम्बर से कभी सफलता नहीं मिलती | वह तो केवल मढोल के अंदर पोलफवाली बात होगी | कार्य ठोस हो, तभी वह टिक सकता है | इसलिए हमें अपने कार्य में तेजस्विता, दृढता तथा तीव्रता निर्माण करने का प्रयत्न करना चाहिए |
२६. हमारा धर्म तथा संस्कृति कितनी भी श्रेष्ठ क्यों न हो, जब तक उनकी रक्षा के लिए हमारे पास आवश्यक शक्ति नहीं है, तब तक वे विश्व के आदर के योग्य नहीं होंगे | हम शक्तिहीन है, इसी कारण हमारा धर्म और हमारी जाति इस हीन-दीन दशा को पहुंची हुई नज़र आती है |
२७. हम पर आज तक जितने भी आक्रमण तथा अत्याचार हुए हैं, आज भी जो हो रहें हैं, उनका उत्तर एक ही हो सकता है- हम प्रचंड शक्तिशाली बनें | यह केवल संघटन के द्वारा ही उत्पन्न कर सकते है | अन्य किसी भी मार्ग से इस शक्ति का निर्माण नहीं हो सकेगा |
२८. हमारी हिंदू जनसंख्या का पलडा बहुत भारी है | संसार की कुल जनसंख्या का हम पाचवां हिस्सा है | इतनी विशाल जनता यदि सुसंघटित हो जाएगी, तब उसकी ओर टेढी नज़र से देखने का साहस संसार के किसी भी शक्ति को नहीं होगा | विश्वास किजीए, हिंदू शक्ति सम्पूर्ण संसार में अजेय सिद्ध होगी | [प.पू. डॉक्टरजी के समय हिंदू जनसंख्या विश्व का पाचवां हिस्सा थी | आज वह विश्व का छठा हिस्सा है | ]
२९. यह ठीक तरह से समझ लो की संघ न तो व्यायामशाला है और न मिलिटरी स्कूल है | संघ यह हिन्दुओं का राष्ट्रव्यापी अभेद्य संघटन है | उसे फौलाद से भी अधिक मजबूत होना चाहिए |
१४. शक्ति न हो तो तुम्हारी पुकार पर कोई ध्यान नहीं देगा और न ही पर्वा करेगा | कारण वे जानते हैं की यह दुबला जीव हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता |
१५. संघटन में असीम सामर्थ्य है | परंतु उसकी अनुभूति प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में होनी चाहिए | हम संघटन करतें हैं क्योंकि हम जानते हैं की अन्य सब कामों से संघटन ही श्रेष्ठ है |
१६. संसार में शांति और सुव्यवस्था के लिए समस्थिती, संतुलन अर्थात् बेलेन्स की आवश्यकता होती है | जहां बलहीन और बलवान एकत्र रहते है वहां अशान्ति अवश्यमभावी है | दो शेर एक दूसरे को नहीं छेड़ते | किन्तु शेर और बकरी यदि एक स्थानपर आ जाते हैं तो वहां क्या होता है यह बताने की जरुरत नहीं है | समान बलवालों में ही शांति तथा प्रेम रह सकता है |
१७. केवल इच्छा मात्र से ही कार्य नहीं हुआ करता | साक्षात् भगवान को भी दशावतार लेकर, मनुष्यशक्ति के द्वारा ही कार्य करना पडा | इस शक्ति को कुछ लोग पशुशक्ति कहते हैं | परंतु मेरी समझ में नहीं आता की धर्मरक्षा तथा जन-कल्याण के लिए जो शक्ति काम में लाई जाती है, उस पवित्र शक्ति को लोग पशुशक्ति कैसे कह सकते है?
१८. वास्तव में यह शक्ति तो उतनी ही पवित्र एवम् मंगलमय है, जितनी की आध्यात्मिक शक्ति | हमें हिंसा करने के लिए बलवान नहीं बनना है | किन्तु संसार की सारी हिंसा और अत्याचार सदा के लिए मिटा देने हेतू ही हमें सामर्थ्य सम्पादन करना है |
१९. हम में जो सामाजिक भावना का अभाव है, वहीं हमारी क्षति का कारण बन गया है | हमें तो केवल अपनी ही व्यक्तिगत चिंता बनी रहती है | हम अपने समाज तथा संस्कृति का विचार तन मन में नहीं लाते है | यदि हम इस दुखदायी परिस्थिती को बदल देना चाहते है, तो हमें अपने समाज का संगठन करना ही होगा |
२०. कठिनाइयां सभी को हैं | गृहस्थी सभी के पीछे लगी है | यदि सभी अपनी-अपनी कठिनाइयों का रोना रोने लगेंगे, तो हम दूसरों के भक्ष्य बनने से बच न सकेंगे | संघकार्य को जब बातों से अधिक महत्त्व का समझ कर यदि हम अपने आपको प्राणपण से इस कार्य में लगा दे, तो कल कम से कम हमारी संतान हिंदू के रूप में जीवित रह सकेगी | [ प. पू. डॉकटरजी ने यह कहने के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश, काश्मीर और अफगानिस्तान में से हिंदू समाप्त हो गए | ७० साल पहले भी अफगानिस्तान में १,५०,००० हिंदू और २५,००० सिख थे, जो की आज केवल कुछ सौ हैं | ]
२१. संगठन में एक मनुष्य दुसरे मनुष्य से कुछ भी कहता नहीं | केवल स्वयं कार्य करता जाता है | जहां बारबार कहने सुनने के मौके आते हो, वहां यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए की काम नहीं हो रहा है | संघ के स्वयंसेवक आपस में कुछ नहीं कहते बोलते हैं | उनके अंत:करण, उनकी भाषा हृदय की भाषा होती है | और वे एक दुसरे की ओर केवल देखते हुए, मूक रहते हुए, कार्य कर सकते हैं | केवल परस्पर दृष्टिपात से ही वह अपने विचार आपस में एक दूसरों को समझा सकते हैं |
२२. आज दुनिया में चारो ओर अन्याय, अत्याचार और अधार्मिकता का स्वच्छाद साम्राज्य फैला हुआ है | वह जब तक नष्ट नहीं होगा, तब तक हम चाहे जितना जप-तप करे , मोक्ष का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता |
२३. संगठन ही राष्ट्र की प्रमुख शक्ति होती है | संसार में कोई भी समस्या हल करनी हो तो वह शक्ति के आधार पर ही हो सकती है | शक्तिहीन राष्ट्र की कोई भी आकांक्षा कभी भी सफल नहीं होती | परंतु सामर्थ्यशाली राष्ट्र कोई भी काम, जब चाहे तब, अपनी इच्छानुसार कर सकता है |
२४. किसी धनी व्यक्ति का उदाहरण लीजिए | वह जब भी चाहें, अपनी इच्छा की तृप्ति कर सकता है | यदि वह आलिशान बंगला बनवाना चाहे तो तुरंत बनवा सकता है | 'पहले पैसा कमा लूं, धनवान बनूं, फिर बंगला बनवाऊँ', ऐसा उसे सोचना नहीं पडता है | बंगला तैयार हो जाने पर यदि उसकी इच्छा हुई की इस बंगले के आसपास सुन्दर सी पुष्पवाटिका याने बगीचा तैयार हो, तो वह भी तुरंत तैयार हो जाती है | किसी भी काम के लिए उसे पग-पग पर रुकना नहीं पडता | ठिक यहीं बात शक्तिशाली राष्ट्र के लिए भी लागू होती है, सारे प्रश्नो तथा समस्याओं का अंतिम उत्तर शक्ति ही है |
२५. यदि केवल मात्र कहने के लिए संघटन हो, अर्थात दिखावटी हो, तो उससे कोई भी लाभ नहीं हो सकता | कोरे आडम्बर से कभी सफलता नहीं मिलती | वह तो केवल मढोल के अंदर पोलफवाली बात होगी | कार्य ठोस हो, तभी वह टिक सकता है | इसलिए हमें अपने कार्य में तेजस्विता, दृढता तथा तीव्रता निर्माण करने का प्रयत्न करना चाहिए |
२६. हमारा धर्म तथा संस्कृति कितनी भी श्रेष्ठ क्यों न हो, जब तक उनकी रक्षा के लिए हमारे पास आवश्यक शक्ति नहीं है, तब तक वे विश्व के आदर के योग्य नहीं होंगे | हम शक्तिहीन है, इसी कारण हमारा धर्म और हमारी जाति इस हीन-दीन दशा को पहुंची हुई नज़र आती है |
२७. हम पर आज तक जितने भी आक्रमण तथा अत्याचार हुए हैं, आज भी जो हो रहें हैं, उनका उत्तर एक ही हो सकता है- हम प्रचंड शक्तिशाली बनें | यह केवल संघटन के द्वारा ही उत्पन्न कर सकते है | अन्य किसी भी मार्ग से इस शक्ति का निर्माण नहीं हो सकेगा |
२८. हमारी हिंदू जनसंख्या का पलडा बहुत भारी है | संसार की कुल जनसंख्या का हम पाचवां हिस्सा है | इतनी विशाल जनता यदि सुसंघटित हो जाएगी, तब उसकी ओर टेढी नज़र से देखने का साहस संसार के किसी भी शक्ति को नहीं होगा | विश्वास किजीए, हिंदू शक्ति सम्पूर्ण संसार में अजेय सिद्ध होगी | [प.पू. डॉक्टरजी के समय हिंदू जनसंख्या विश्व का पाचवां हिस्सा थी | आज वह विश्व का छठा हिस्सा है | ]
२९. यह ठीक तरह से समझ लो की संघ न तो व्यायामशाला है और न मिलिटरी स्कूल है | संघ यह हिन्दुओं का राष्ट्रव्यापी अभेद्य संघटन है | उसे फौलाद से भी अधिक मजबूत होना चाहिए |
संघ का ध्येय
३०. संघ तो केवल 'हिन्दुस्थान हिन्दुओं का' इस ध्येय वाक्य को प्रत्यक्ष में लाना चाहता है | हिन्दुस्थान देश हिन्दुओं का ही है | जैसे अन्य लोगों के अपने देश हैं, वैसा ही यह हिन्दुओं का देश है | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए अन्य किसी भी पचडे में पडने की कोई आवश्यकता नहीं है |
३१. अपने समाज को बलशाली और संघटित करने के लिए संघ ने जन्म लिया है | इसकी शाखाएँ समस्त भारतवर्ष में हिंदू समाज को बलिष्ठ बनाने का कार्य कर रही हैं | समूचे हिन्दुस्थान में एक भी कसबा, एक भी गांव ऐसा न बचे, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा न हो |
३२. हम किसी पर आक्रमण करने नहीं चले हैं | पर इस बात के लिए हमें सदा सतर्क तथा सचेत रहना होगा, की हम पर भी कोई आक्रमण नहीं कर सके |
३३. बढते-बढते एक ऐसा स्वर्ण दिन अवश्य आएगा, जिस दिन सारा भारतवर्ष एक दिखाई देगा | फिर हिंदू जाति की ओर वक्र दृष्टी से देखने का सामर्थ्य संसार की किसी भी शक्ति में नहीं रहेगा |
३४. हिंदू जाति का अंतिम कल्याण इस संघटन के द्वारा ही हो सकता है | दूसरा कोई भी काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं कराना चाहता |
३५. संपूर्ण हिंदू समाज संघटित हो कर अपने पैरो पर खडा रहें | इसी एक बात के लिए, हम लोगों ने अपना सारा जीवन लगा देने का संकल्प किया है |
३६. हम इस महान कार्य के प्रति अविचल निष्ठा रखें | यह हमारे जीवन का एकमेव कार्य है | अपने ध्येय को हम अपने हृदयपटलपर अंकित कर लें | हमें समूचे हिंदू समाज में नवचैतन्य भरना हैं तथा निर्भय वृत्ति उत्पन्न करनी हैं| सामाजिक भावशक्ति निर्माण कर समाजके प्रत्येक व्यक्ती के हृदय में हमें स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास जागृत करना है |
३७. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खूब सोच-समझकर अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित किया है | और इसलिए वह अन्य किसी कार्य के झमेले में नहीं पडना चाहता | ध्येय पर दृष्टी रखते हुए हमें अपने निश्चित मार्ग पर अग्रेसर होना है|
३८. हममें रात-दिन केवल इसी बात का विचार बना रहें की हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण इस पवित्र कार्य के लिए किस प्रकार खर्च हो सकेगा | साथ ही साथ, हमें अपने विचारों के अनुरूप आचरण भी करना सीखना चाहिए | हमें सतत इस बात की लगन रहनी चाहिए, की हमारा संघटन प्रतिक्षण किस प्रकार बढे |
३९. किस ध्येयसिद्धी के लिए हमने अपनी कमर कसी है? हम बस यहीं चाहते हैं की हमारा पवित्र हिंदू धर्म तथा हमारी प्रिय हिंदू संस्कृति संसार में गौरव के साथ चिरजीवन प्राप्त करें |
४०. अपने समाज में संघटन निर्माण कर, उसे बलवान तथा अजेय बनाने के अतिरिक्त हमें कुछ और नहीं करना है | इतना बस कर देने पर सारा काम अपने आप ही बन जाएगा | हमें आज समालेवाली सारी राजनैतिक, सामजिक तथा आर्थिक समस्याएँ आसानी से हल हो जाएगी |
४१. संघ तो बस हिन्दुओं को शक्तिशाली बनाना चाहता है | हिंदू इतने शक्तिशाली हो जाए की उनपर आक्रमण करने का साहस किसी को न हो | जब हमारा सामर्थ्य अजेय होगा, तभी ऐसी परिस्थिती निर्माण हो सकेगी|
४२. संघ का संस्कारों पर अत्याधिक विश्वास है | जैसे संस्कार हो, वैसी ही मनुष्य की वृत्ति बनती है और एकही वृत्ति के अनेक लोगों के एकत्रित होने से, संघटन के लिए पोषक वातावरण उत्पन्न होता है | सारे देशभर में इस तरह का पवित्र, श्रद्धायुक्त, ध्येयनिष्ठा के रंग में रंगा हुआ, निराशा को नष्ट करनेवाला, हिम्मत को बढानेवाला स्फूर्तिदायक वातावरण तैयार करें | स्वयंसेवक जहां भी जाए, वहीं यह वातावरण अपने साथ ले जाए |
४३. जिन उद्देश्यों को लेकर हम चलना चाहते हैं, उनमें न किसी प्रकार दोष है, न पाप | अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करने का बीडा हमने उठाया है | इसमें कौन सा पाप है?
४४. हमारा विश्वास है की भगवान हमारे साथ है | हमारा काम किसी पर आक्रमण करना नहीं है, अपितु शक्ति और संघटन का है | हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के लिए हमें यह पवित्र कार्य करना चाहिए और अपनी उज्वल संस्कृति की रक्षा कर उसकी वृद्धि करनी चाहिए | तब ही आजके दुनिया में हमारा समाज टिक सकेगा |
४५. मेरी अटल श्रद्धा हो गई है की, हम पर भगवान की कृपा सदा बनी रही है, और आगे भी बनी रहेगी | क्योंकि भगवान हमारे हृदय के भावों को ठिक-ठिक जानते है | हमारा हृदय पवित्र और शुद्ध है | हमारे मन में पाप का लवलेय भी नहीं |
४६. हिंदू जाति की सेवा करने की एकमात्र भावना से हमारा अंतःकरण तथा रोम-रोम व्याप्त है | अन्य से हमारे हृदय में अवकाश ही नहीं | फिर भगवान की कृपा हम पर क्यों न हो?
४७. आज इतनी अधिक अनुकूल परिस्थिती है, की हमारे कार्यकर्ता जहां भी पहुँच जाते हैं, सफलता ही पाते हैं | हमारा उद्देश्य और कार्य नितांत पवित्र तथा जनकल्याणकारी होने के कारण ईश्वरीय है, और यहीं कारण है की हर समय तथा हर परिस्थिती में हम अवश्य सफल होंगे |
४८. संघ के सिद्धांतो पर अटल श्रध्दा रखें | हम अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं | हमें सत्य का अधिष्ठान है | अत: किसी संकट से भयभीत होने का या घबराने का कोई भी कारण नहीं | आपत्तियाँ योंही उपस्थित नहीं होती | वे तो परमात्मा की कृपा सूचित करती है | संकटो द्वारा हमें कसौटीपर उतरने, और उसमें सफल होनेपर आगे का उन्नत मार्ग दिखाने की ईश्वरी इच्छा ही जाहीर होती है |
४९. हम यह भी न भूलें की यह विशाल कार्य किसी भी एक मनुष्य या चंद मनुष्यों से हाथो संपन्न होनेवाला नहीं है| उसके लिए तो एकही ध्येय से प्रेरित, लाखों, करोडो लोगों के संघटित प्रयत्नों की आवश्यकता है | मेरी आपसे यहीं प्रार्थना है की इस विशाल भारत के कोने कोने में, ध्येयनिष्ठ तथा बलवान तरुणों में कोई कठिनाई नहीं प्रतीत होगी | तब सुन्दर चित्र सहज रूप में दिखाई देगा |
५०. समस्त भारत वर्ष में संघ शाखाओं का जाल फैलना चाहिए | ऐसे संघटन से ही हमारी दुर्बलता दूर होगी तथा, हमारा समाज सामर्थ्यशाली और प्रभावशाली बनेगा | यह कार्य मात्र एक-दो व्यक्तियों का नहीं है | अपितु यह समस्त हिंदू समाज का है | वृद्धजन करनी चाहिए | तभी यह कार्य जोर-शोर से बढेगा | आज तक के अनुभव से हम यह दावे के साथ कह सकते है की इस कार्य में हम अवश्य सफल होंगे |
५१. यह संघ तो आप सब लोगों का है | संघ में जातिविशेष का महत्त्व नहीं है | यहां व्यक्तिविशेष के बडप्पन को भी स्थान नहीं है | स्ठान विशेष के अभिनिवेश यहां लेशमात्र भी नहीं है |
५२. यदि आप कहेंगे की हम तो अलग रहेंगे और दूर खडे-खडे देखते रहेंगे, तो उससे कुछ लाभ नहीं | यह संघ तो सब हिन्दूओं का है न? तो फिर सब हिंदूओ को इसमें सम्मिलित हो जाना चाहिए |
५३. वयोवृद्ध लोगों को तो संघकार्य में काफी महत्त्व का स्थान है | वे संघ में महत्त्वपूर्ण कार्य का दायित्व उठा सकते हैं | यदि प्रौढ लोग अपनी प्रतिष्ठा तथा व्यवहार कुशलता का उपयोग संघकार्य के हेतु करें, तो युवकजन अधिकाधिक उत्साह से कार्य कर सकेंगे | बडों के मार्गदर्शन से युवकों की शक्ति कई गुना बढती है और तब संघकार्य अपने निश्चित ध्येय की ओर द्रुत गति से बढता चला जाता है | इसलिए किसीने भी संघ के प्रति उदासीनता नहीं रखनी चाहिए | प्रत्येक को उत्साह तथा हिम्मत से आगे आना चाहिए, कार्य में जुट जाना चाहिए|
५४. हमारा कार्य अखिल हिंदू समाज के लिए होने के कारण, उसके किसी भी अंग की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा | सभी हिंदू भाइयों के साथ, फिर वे किसी भी उच्च या नीचे श्रेणी के समझे जाते हों, हमारा बर्ताव हर एक से प्रेम का होना चाहिए | किसी भी हिंदू भाई को नीचा समझकर उसे दुतकारना पाप है |
५५. हिन्दुस्थानपर प्रेम करने वाले हरेक हिंदू से हमारा व्यवहार भाई जैसाही होना चाहिए | लोग कैसा व्यवहार करते हैं, और क्या बोलते हैं, इसका कोई महत्त्व नहीं है |हमारा बर्ताव अगर आदर्श हो, तो हमारे सारे हिंदू भाई हमारी ओर ठीक रूप से आकर्षित होंगे |
५६. सारा हिंदू समाज हमारा कार्यक्षेत्र है | हम सभी हिन्दूओं को अपनाए | अपने निजी मान-अपमान की क्षुद्र भावनाओं को त्यागकर हमें प्रेम तथा नम्रता के साथ अपने समाज के सब भाइयों के पास पहुंचना होगा | कौनसा पत्थर-हृदय हिंदू है, जो तुम्हारे मृदुता तथा नम्रतापूर्ण शब्दों को सुनना इनकार कर देगा?
५७. संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं | संघ के बाहर जो लोग हैं उनके लिए भी है | हमारा यह कर्तव्य भी हो जाता है की उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताए और यह मार्ग है, केवल संघटन का |
५८. केवल संघ का कार्यक्रम ठीक रूप से करने से या नियमित रूप से संघस्थान पर उपस्थित रहने से ही संघकार्य पूरा नहीं हो सकता | हमें तो आसेतुहिमाचल फैले हुए इस विराट हिंदू समाज को संघटित करना है | सच्चा महत्त्वपूर्ण कार्यक्षेत्र तो संघ के बाहर का हिंदू जगत ही है |
५९. निर्दोष कार्य करने हेतु, शुद्ध चरित्र के साथ साथ आकर्षकता और बुद्धिमत्ता का मणिकांचनयोग भी साधना चाहिए | सद्चरित्र, आकर्षकता और चातुर्य इस तीनों के त्रिवेणी संगम से ही संघ का उत्कर्ष होता है | चरित्र के रहते हुए भी चतुराई के अभाव में संघकार्य हो नहीं सकता | संघकार्य सच्चे रूप से चलाने के लिए हमें लोकसंग्रह के तत्त्वों को भलीभाँति समझ लेना होगा |
६०. बोलते-चलते, आचार-व्यवहार करते, तथा प्रत्येक कार्य करते समय हम सावधान रहें की, हमारी किसी भी कृति के कारण संघ के ध्येय तथा कार्य को, कोई क्षति न पहुंचे |
६१. हम आत्मनिरिक्षण करते हुए अपने सभी दुर्गुणों का समूल उच्चाटन कर दें | हम ऐसे सद्गुणों को अपनाए, जो हमारी कार्यवृद्धि को पोषक हों | और जिनके कारण लोगों को हम अपनी ओर आकर्षित कर सकें |
६२. यदि आप अपने अतीत जीवन तथा गत घटनाओं का पुन: पुन: एकांत में अवलोकन करते रहें, तो आपको अपने दोष दिखाई देंगे | जिन्हें अपने दोष दिखाई न पडे और जो अपने आपको सर्वथा दोषरहित समझें, उनका सुधार होना कदापि संभव नहीं | जो अपने चरित्र की त्रुटियों को देख सकते हैं, वहीं अपने चरित्र को सुधार भी सकते हैं |
६३. चरित्र निष्कलंक होने के कारण, अनजाने में भी, हम में यह दुर्भावना छू तक न आनी चाहिए की हम कुछ विशेष है तथा औरों से श्रेष्ठ है | किसी भी दशा में, स्वप्न में भी ऐसा न लगे की हम अन्य लोगों से कहीं अच्छे हैं | मुझे विश्वास हैं की हम में ऐसा अहमभाव रखनेवाला कोई नहीं है | किन्तु यदि कोई ऐसा हो, जो सोचता हो की मैं बहुत कार्य कर रहा हूं, इसलिए औरों से कुछ श्रेष्ठ हूं और इसी नाते दूसरों को नीची तथा तुच्छ दृष्टी से देखने का अधिकारी हूं, तो मैं उसे यह परामर्श दूंगा की वह ऐसे वृथाभिमान को सत्वर निकाल बाहर फेंकें |
६४. आप इस भ्रम में न रहें की लोग हमारी ओर नहीं देखतें | वे हमारे कार्य तथा हमारे व्यक्तिगत आचरणों की ओर आलोचनात्मक दृष्टी से देखा करते हैं | इसीलिए केवल व्यक्तिगत चालचलन की दृष्टी से सावधानी बरतनेसे काम नहीं चलेगा | अपितु सामूहिक एवम् सार्वजनिक जीवन में भी हमारा व्यवहार हमें उदात्त रखना होगा |
६५. हमारा चरित्र इस सीमा तक उज्वल हो, की अन्य लोग प्रभावित होकर हमारे निष्कलंक चरित्र पर मुग्ध हो जाए | वे हमसे मित्रता करने तथा सभी दृष्टी से हमारी हितरक्षा करने के लिए उत्सुक हो जाए |
६६. किसी भी आन्दोलन में साधारण जनता कार्यकर्ता के कार्य का उतना ख्याल नहीं करती जितना की उसके व्यक्तिगत चरित्र में ढूंढने से भी दोष या कलंक छींट तक के न मिलने का |
६७. हमें अपने नित्य के व्यवहार भी ध्येय पर दृष्टी रखकर ही करने चाहिए | प्रत्येक को अपना चरित्र कैसा रहें, इसका विचार करना चाहिए | अपने चरित्र में किसी भी प्रकार की त्रुटी न रहें |
६८. प्रत्येक अधिकारी तथा शिक्षक को सोचना चाहिए की उसका बर्ताव कैसा रहे और स्वयंसेवकों को कैसे तैयार किया जाए | स्वयंसेवकों को पूर्णतः संघटन के साथ एकरूप बनाकर उनमें से प्रत्येक के मन में यह विचार भर देना चाहिए की मैं स्वयंही संघ हूं | प्रत्येक व्यक्ति की आखों के सामने ध्येय का एकही तारा सदा जगमगाता रहें | उस पर उसकी दृष्टी तथा मन पूर्णतः केन्द्रित हो जाए |
६९. हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए की जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है, और जो उद्देश हमारे सामने है, उसे प्राप्त करने के लिए हम कितना काम कर रहें हैं | जिस गति से, तथा जिस प्रमाण में, हम अपने कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं, क्या वह गति या प्रमाण, हमारी कार्यसिद्धी के लिए पर्याप्त है?
७०. हम में इतना आत्मविश्वास और इतनी आकर्षण शक्ति होनी चाहिए की जहां कोई एक बार हमारे बीच आया की बस वह हमारा ही हो गया | हम से दूर होने का फिर वह कभी नाम भी न ले |
७१. आप यह स्पष्ट याद रखें की हमारा निश्चय और स्पष्ट ध्येय ही हमारी प्रगती का मूल कारण है | संघ के आरम्भ से हम, हमारी भावनाए, ध्येय से समरस हो गई है | हम कार्य से एकरूप हो गए है |
७२. यदि आप स्वयं को संघ का कार्यकर्ता समझते है, तो पहले आपको सोचना होगा की आप हर दिन और हर माह कौनसे कार्य कर रहे है? अपने किए हुए कार्य की आपको सदैव जांच पडताल करते रहना चाहिए | केवल हम संघ के स्वयंसेवक है, और मागत इतने वर्षों में संघ ने इतना कार्य किया है, इसी बात में आनंद तथा अभिमान मानते हुए आलस्य में दिन काटना, गिरा पागलपन ही नहीं अपितु कार्यनाशक भी है |
७३. यह खूब समझ लो की बिना कष्ट उठाए और बिना स्वार्थत्याग किए, हमें कुछ भी फल मिलना असंभव है | मैंने स्वार्थ-त्याग शब्द का उपयोग किया है | परंतु हमें जो कार्य करना है वह हमारी हिंदू जाति के स्वार्थ-पूर्ति के लिए है | अत: उसी में हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ भी अन्तिर्भुत है | फिर हमारे लिए भला दुसरा कौनसा स्वार्थ बचता है? यदि इस प्रकार यह कार्य हमारे स्वार्थ का ही है, तो फिर उसके लिए हमें जो भी कष्ट उठाने पडेंगे, उसे हम स्वार्थ-त्याग कैसे कह सकेंगे? वास्तव में यह स्वार्थ-त्याग हो ही नहीं सकता | हमें केवल अपने 'स्व' का अर्थ विशाल करना है | अपने स्वार्थ को हिन्दू राष्ट्र के स्वार्थ में हम एकरूप कर दें |
७४. अब मैं तो आपसे केवल यहीं कहना चाहता हूं की- (१) भविष्य के विषय में किसी तरह का संदेह न रखते हुए आप नियमित रूप से शाखा में आया करें | (२) संघकार्य के प्रत्येक विभाग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसमें निपुण बनने का प्रयास करे | (३) बिना किसी व्यक्तियों की सहायता लिए, स्वतंत्र रीति से एक-दो संघ शाखाए चला सकने की क्षमता प्राप्त करे |
७५. कच्ची नींव पर खडी की गई इमारत शुरू में भलेही सुन्दर या सुघड प्रतीत होती होगी, परंतु बवंडर के पहले ही झोंके के साथ वह भुमिसात हुए बिना खडी करना हो, तो उतनी ही उसकी नींव विस्तृत और ठोस होनी चाहिए |
७६. आसेतु-हिमाचल, अखिल भारतवर्ष, हमारी कार्यभूमि है | हमारा दृष्टीकोन विशाल होना चाहिए | हमें ऐसा लगना चाहिए की समूचा भारतवर्ष हमारा घर है | हम किस सीमा तक और कौनसा कार्य कर सकते हैं, यह पहले निश्चित कर उसके अनुसार हम अपने जीवन का आयोजन करें, और प्रतिज्ञापूर्वक उस कार्य को पूरा करके ही रहें |
७७. यदि हम शक्तिशाली होते, तो क्या किसीकी हिम्मत होती की वे हम पर आक्रमण करने का दु:साहस करे? या हमें अन्य किसी तरह से अपमानित करे? फिर हम क्यों दूसरों को दोष दे? यदि दोष हमारा ही है, तो हमें स्वीकारना चाहिए और अपनी कमजोरियों को तथा त्रुटियों को दूर कराने में जुट जाना चाहिए |
७८. जब तक हम दुर्बल रहेंगे तब तक हम पर आक्रमण करने के लिए बलवानों का मन अवश्य ही ललवाता रहेगा | यह तो निसर्गनियम ही है | केवल बलवानों को गालियाँ देने से अथवा उनकी निंदा करने से क्या लाभ होगा? ऐसा करने मात्र से परिस्थिती बदल नहीं सकती |
७९. शतक बीत गए | हम पर विदेशी आक्रमणों का तांता लगातार क्यों लगा हुआ है? हम दीनदुर्बल तथा मृतप्राय हो गए है इसीलिए न? हमारी सब विमत्तियों की जड़ में हमारी शक्तिहीनता ही है | उसे हमें सर्वप्रथम उखाड फेंकना होगा |
८०. "जीवो जीवस्य जीवनम्" यह प्रकृति का नियम है | अर्थात दुर्बल लोग हमेशा बलवानों का भक्ष्य बनते हैं | संसार में दुर्बलों के लिए गौरव से जीना असंभव है | उन्हें तो बलवानों का दास/सेवक बन कर ही रहना पडता है | सदैव अपमानित तथा असहनीय कष्टों से परिपूर्ण जीवन ही उनके भाग्य में लिखा रहता है |
८१. हमारी सारी अवनति की जड है, हमारी मानसिक दुर्बलता | इस दुर्बलता को हम सर्वप्रथम नष्ट कर दें |
८२. भारतवर्ष, भारतखंड, आर्यावर्त हिन्दुस्थान, आदि नामो के द्वारा एकही अर्थ प्रकट होता है | परंतु उस अर्थ की कल्पना मात्र से हम अकारण हडबड जाते है | बंधन में जकडे हुए तोते जैसी हमारी अवस्था हो रहीं है | हम भ्रम के भंवर में फस कर गोते खा रहे है | हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने पर जो लोग तुले हुए हैं उन्हें गले लगाने के लिए हम मरे जा रहे है | यह सारा हमारी मानसिक दुर्बलता का परिणाम है |
८३. जैसे हमारे विचार, वैसाही हमारा आचरण बनता है | अतीत काल में बहुत बलवान थे, परंतु इस सत्य को आज हम भूल गए है | इसलिए आजके हमारे सारे आन्दोलन दुर्बलतापूर्ण दिखाई देते हैं | हमारे आज के आन्दोलन में न चैतन्य है, और न पुरुषार्थ है |
८४. मन की दुर्बलता ही सबसे अधिक घातक दुर्बलता होती है और वहीं हमारा सबसे बडा दोष है | यदि हम अपने आपको बलवान समझकर संघटन के कार्य में लगन के साथ जुट जाए, तो हमारी शक्ति विराट रूप धारण कर लेगी | फिर कोई भी कार्य हमें असंभव नहीं प्रतीत होगा | असली बात तो यह है की, हम अपने भीतर की शक्ति को भूल रहे है |
८५. आप से मेरी यह प्रार्थना है की आप अपनी स्वार्थी भावना तथा अकर्मण्यता की वृत्ति को समूलन त्याग दे | समाज सेवा कार्य के प्रति अति उदासीन हो जाने के कारण हमारा मन बहुत दुर्बल हो गया है | "समाज चूल्हे में क्यों न जाए , मुझे उससे कुछ भी वास्ता नहीं | बस, मेरा स्वार्थ बना रहें |" इस प्रकार के समाजविषयक उदासीनता के भाव हम में कुट-कुट कर भरे है | इसलिए हमारा समाज आज निर्बल हो गया है |
८६. आज की अवस्था में हम भगवान की सहायता की आशा नहीं कर सकते | उलटे, यह जान कर की इस समाज में स्वार्थी एवं पापीयों की ही भीड है, भगवान हम लोगोंसे अपना मुँह मोड लेंगे | यदि भगवान का यदाकदाचित अवतार हुआ भी, तो हमारी रक्षा के लिए नहीं, बल्की हमें नष्ट करने के लिए ही होगा, क्योंकि दुष्टों का विनाश करना ही उनका प्रण है |
८७. जब तक हम इसी प्रकार के अर्थात् व्यक्तिगत स्वार्थो में लिप्त, दुर्बल एवम् समाजहितो के प्रति उदासीन रहेंगे, और जब तक हम सज्जन नहीं बनेंगे, तब तक हमें दुष्ट समझ कर भगवान हमारे नाश के लिए ही सहायक होंगे | हां, जब हम वास्तव में साधु बनेंगे अर्थात राष्ट्र, धर्मं तथा समाज के कल्याण के लिए अपना सब कुछ होम देने पर उतारू होंगे, तभी भगवान हमारी सहायता करेंगे |
८८. साधू तो वे हैं जो धर्म, राष्ट्र, समाज तथा जनकल्याण का भाव मन में रखते हुए सदा अपना कर्तव्य करने के लिए उदत्त रहें | क्या इस प्रकार के त्यागी और कर्तव्यपरायण लोग हिंदू समाज में पर्याप्त संख्या में हैं? यदि हिन्दुओं की कम से कम आधी जनसंख्या साधुता के उपर्युक्त भावो से भरी होती, तो इस महान जाती पर आघात करने का दु:साहस कोई नहीं करता | फिर भगवान स्वयं धर्मसंरक्षण करने हेतु हमारे बीच उपस्थित हो जाते |
८९. गीता में भगवान कहते है की 'परित्राणाय साधुनां' अर्थात साधुओं के संरक्षण के लिए वे अवतार लेंगे | किन्तु साधू कौन है? साधु किसे कहां जा सकता है ? जिन्हें न समाज या राष्ट्र की चिंता है, और न धर्म या संस्कृति की फिकर है, क्या उन्हें हम साधु कहेंगे? जिन्हें अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ भी सुझता नहीं हैं, ऐसे दुष्टों के संहार के लिए ही तो परमेश्वर का अवतार हुआ करता है | हिंदू समाज में ये सब दुर्गुण पराकाष्ठा तक पहुँच चुके हैं | क्या ऐसे लोगों को दुष्ट न कहां जाए?
९०. अन्य लोग इस कार्य को चाहे जितना कठिन बतलावें, परंतु तुम स्वतः इन कठिनाइयों का रोना कभी न रोवो| हमें तो वह कार्य कर दिखाना है, जिसका परिणाम देख कर संसार को दाँतो तले उंगली दबाकर ही रहना पडेगा | क्या तुम्हें पता नहीं की संघ का प्रारम्भ कितने थोडे लोगों से हुआ?
९१. व्यक्ति के जीवन में जिस प्रकार नानाविध बाधाएँ आती हैं, उसी प्रकार संघ के जीवन में भी बाधाओं की कमी नहीं | परंतु बाधाएँ चाहे जितनी आए , संघ का कदम तो आगे बढना ही चाहिए |
९२. यदि सब लोग काम करने में जुट जाए, तो हमारा कार्य बडी शीघ्रता से बढेगा | क्योंकी यह समय हमारे कार्य के लिए बडा अनुकूल है | आज जैसी अनुकूल परिस्थिती पहले कभी न थी| हमें इस सुअवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए |
९३. दुनियां का व्यवहार आप जानते ही हैं | दुकानदार सौ रुपये की चीज़ निन्यानवे रुपये में नहीं देता | दुनिया में हरेक चीज़ की पूरी किमत चुकानी पडती है| अतः जब तक हम अपने समाज में, पर्याप्त शक्ति निर्माण नहीं करते तक तक हमें निरंतर कार्य करते रहना होगा | केवल शरीरबल से काम नहीं चलेगा | साथ में विचारशक्ति की भी आवश्यकता है | प्रथम तो विचारशक्ति ही उत्तम रहनी चाहिए | अत: संघ के स्वयंसेवक प्रथम स्वयं की मानसिक दुर्बलता प्रयत्नपूर्वक हटा दे और बाद में अन्य साथियों में भी अपनें ही समान मानसिक सामर्थ्य उत्पन्न करे |
९४. यदि हमें संसार के सम्मुख यह सिद्ध कर दिखाना है की हिन्दुस्थान हिन्दुओं का राष्ट्र है, तो हमारा कर्तव्य हो जाता है की हम इस कार्य को अपना निजी कार्य समझकर, उसकी सफलता के लिए, आवश्यक आचार-विचारों से अपना जीवन परिपूर्ण करें | फिर यहीं हमारा प्रमुख कर्तव्य हो जाता है |
९५. दूसरी भी एक श्रेणी के लोग होते हैं, जो कहा करते हैं की राष्ट्रसेवा का समय आ जाने पर हमें पुकारो, जहां भी कहो, कूद पडने के लिए हम तैयार है | किन्तु उन्हें यह पूछे बिना मुझसे रहा नहीं जाता की, भाईयों, तुम्हें पुकारेगा कौन? पुकारने का वह अंतिम क्षण लगातार कार्य करने से ही तो निकट आ सकता है | अपने अपने घर में उस समय की बाट जोहने से कहीं वह स्वयं चलकर किसी के पास आएगा? आप निर्णायक क्षण की राह देखते हुए स्वयं तो अपने घर में बैठे रहेंगे, और यह आशा करेंगे की दुसरे लोग अंतिम समय नजदीक लाने के लिए कार्य करते रहें ! क्या यह सारा व्यवहार सुसंगत है ?
९६. कुछ महाशय कहते हैं, 'उसमें क्या रखा है? समय आने दो, सब कुछ ठीक हो जाएगा' | परंतु क्या अपने निजी मामले में भी ये सज्जन इसी प्रकार सोचते हैं? जब अपने आप पर बितती है, तब क्या ये भगवान का नाम लेते हुए चुपचाप बैठे रहते हैं? कभी नहीं ! तब तो ये हर प्रकार की उठापठक और दौडधूप करते दिखाई देते है| अपना काम पूरा करके ही वे दम लेते हैं | व्यक्तिगत स्वार्थ के अतिरिक्त जब देश, धर्म या समाज का सवाल आता है, तभी उन्हें भगवद्शक्ति का बहाना सूझता है | तब हम यह क्यों न कहें, की उपर्युक्त विचारों की जड में सिवा स्वार्थ के कुछ नहीं है?
९७. कुछ सज्जन कहते हैं, की हम तो ईश्वर का भजन पूजन करते हैं, वह हमें अवश्य सफलता देगा | उन सज्जनों को मैं आव्हानपूर्वक कहना चाहता हूँ की वे मुझे एक भी उदाहरण बताए, जहां किसी मनुष्य ने केवल पाठपूजा किया और सौ रुपये उसके चरणों पर आ टपके | ऐसा तो कभी नहीं होता | बिना कष्ट उठाए कार्य होना एकदम असंभव है | हमें बहुत परिश्रम करना होगा | ऐसा तो कभी नहीं होता हां, कार्य करते समय हम भगवान का अवश्य स्मरण रखें और हम जो कुछ भी कार्य करते हैं, उसे परमेश्वर के चरणों पर समर्पित करने की भावना रखें |
९८. मनुष्य अपना छोटासा संसार भी बिना प्रयत्नों के संभाल नहीं सकता | फिर राष्ट्र का विशाल जीवनचक्र अपने प्रयत्नों के बिना अपने आप निरंतर चलता रहेगा, ऐसी अपेक्षा करने में कितनी बुद्धिमानी होगी? राष्ट्र का जीवनचक्र ठीक प्रकार से चलाने के लिए तो, असीम प्रयत्नों की आवश्यकता होती है | बिना प्रयत्नों के सिद्धी कहां ?
९९. अंग्रेजी में एक कहावत है "गॉड हेल्प्स दोज हू हेल्प देम्सेल्व्स" | उसका अर्थ है, जो स्वयं अपनी सहायता करते हैं, उन्हीं की ईश्वर सहायता करता है | मेरी समझ में नहीं आता की भगवान हमारी सहायता क्यों करेंगे? उन्हें क्यों हम पर दया आएगी? हम लोग स्वयं अपनी कौनसी सहायता कर रहे हैं | की भगवान हमें बचाने हेतु दौड पडे ?
१००. वास्तव में प्रत्येक स्वयंसेवक यह सदैव सोचता रहे की वह संघ का दैनिक कार्य कितना करता है और योग्य स्वयंसेवको की संख्या कितनी बढती है | सब लोगों के सामान हम दैनंदिन नित्यकार्य में तो भाग लेते है परंतु क्या हम संख्या बढाने की दृष्टी से विशेष रूप से प्रयत्नशील हैं?
१०१. कैसी ग्लानी की बात है की एक वर्ष के भीतर पांच मित्रो को संघ में लाना, तुम्हारे लिए कठिन-सा मालूम होता है | क्या यहीं है तुम्हारी योग्यता? थोडी इमानदारी के साथ सोचो तो सही | स्वयं अपनी आत्मा के साथ धोखा न करो |
११०. हमारे आजके
कार्यक्रम साधनरूप है | कई
सज्जन इन कार्यक्रमों को संघ का उद्देश्य समझते है | किन्तु यह उनका भ्रम है | हमें अपने आचरण से इस अवधारणा को दूर
करना होगा | देश
में हमें एकसूत्रता और अनुशासन निर्माण करना है | इसका अर्थ यह नहीं की लाठी-काठी या
सैनिक शिक्षा बिलकुल निरुपयोगी है |
१११. अपने ध्येय के अनुकूल लोगों को संघटित करना हमारा सबसे पहला कार्य है | जो मनुष्य अपने आपको सच्चा हिंदू कहलाता है, उसके पास पहुंचकर हम उसकी आजकी अवनति का ज्ञान करा दें | तथा उसे देशकार्य के लिए प्रवृत्त करें | ऐसे दस-पाच हिंदू इकट्ठे हो जाने पर उनका एक मुखिया नियुक्त करें | वह कुशल कर्णधार हो | इस प्रकार शहर में, देहात में, कही भी संघ का कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है | जब तक इस प्रकारकी संघ शाखाओं का जाल सारे भारतवर्ष में नहीं फैलता है, तब तक हम नहीं कह सकेंगे की हमारा संघटन पूर्ण हो गया है |
११२. जो स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो और जहां प्रमुख लोग सुविधापूर्वक इकठ्ठा हो सकते हो, ऐसे स्थानपर शाखा होनी चाहिए | सारा उत्साह तथा शक्ति इसी एक शाखा में जुटा देनी चाहिए | सारे उत्साही तरुणों को इसी शाखा में अवश्यमेव आना चाहिए | यदि तुम भिन्न-भिन्न स्थानोंपर शाखाएँ खोलोगे तो तुम्हारा उत्साह बंट जाएगा | लोगों की शक्ति एकही स्थान पर केन्द्रिभुत न होने के कारण, योग्य मात्रा में न संघटन होगा और न संघटन का दृश्य स्वरूप ही बन पाएगा | परंतु यदि एक शाखा सुचारू ढंग से और आदर्श रूप में चलाई जा सकी, तो आगे चलकर उसी शाखा से अनेक शाखाओं का निर्माण हो सकेगा |
३१. अपने समाज को बलशाली और संघटित करने के लिए संघ ने जन्म लिया है | इसकी शाखाएँ समस्त भारतवर्ष में हिंदू समाज को बलिष्ठ बनाने का कार्य कर रही हैं | समूचे हिन्दुस्थान में एक भी कसबा, एक भी गांव ऐसा न बचे, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा न हो |
३२. हम किसी पर आक्रमण करने नहीं चले हैं | पर इस बात के लिए हमें सदा सतर्क तथा सचेत रहना होगा, की हम पर भी कोई आक्रमण नहीं कर सके |
३३. बढते-बढते एक ऐसा स्वर्ण दिन अवश्य आएगा, जिस दिन सारा भारतवर्ष एक दिखाई देगा | फिर हिंदू जाति की ओर वक्र दृष्टी से देखने का सामर्थ्य संसार की किसी भी शक्ति में नहीं रहेगा |
३४. हिंदू जाति का अंतिम कल्याण इस संघटन के द्वारा ही हो सकता है | दूसरा कोई भी काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं कराना चाहता |
३५. संपूर्ण हिंदू समाज संघटित हो कर अपने पैरो पर खडा रहें | इसी एक बात के लिए, हम लोगों ने अपना सारा जीवन लगा देने का संकल्प किया है |
३६. हम इस महान कार्य के प्रति अविचल निष्ठा रखें | यह हमारे जीवन का एकमेव कार्य है | अपने ध्येय को हम अपने हृदयपटलपर अंकित कर लें | हमें समूचे हिंदू समाज में नवचैतन्य भरना हैं तथा निर्भय वृत्ति उत्पन्न करनी हैं| सामाजिक भावशक्ति निर्माण कर समाजके प्रत्येक व्यक्ती के हृदय में हमें स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास जागृत करना है |
३७. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खूब सोच-समझकर अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित किया है | और इसलिए वह अन्य किसी कार्य के झमेले में नहीं पडना चाहता | ध्येय पर दृष्टी रखते हुए हमें अपने निश्चित मार्ग पर अग्रेसर होना है|
३८. हममें रात-दिन केवल इसी बात का विचार बना रहें की हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण इस पवित्र कार्य के लिए किस प्रकार खर्च हो सकेगा | साथ ही साथ, हमें अपने विचारों के अनुरूप आचरण भी करना सीखना चाहिए | हमें सतत इस बात की लगन रहनी चाहिए, की हमारा संघटन प्रतिक्षण किस प्रकार बढे |
३९. किस ध्येयसिद्धी के लिए हमने अपनी कमर कसी है? हम बस यहीं चाहते हैं की हमारा पवित्र हिंदू धर्म तथा हमारी प्रिय हिंदू संस्कृति संसार में गौरव के साथ चिरजीवन प्राप्त करें |
४०. अपने समाज में संघटन निर्माण कर, उसे बलवान तथा अजेय बनाने के अतिरिक्त हमें कुछ और नहीं करना है | इतना बस कर देने पर सारा काम अपने आप ही बन जाएगा | हमें आज समालेवाली सारी राजनैतिक, सामजिक तथा आर्थिक समस्याएँ आसानी से हल हो जाएगी |
४१. संघ तो बस हिन्दुओं को शक्तिशाली बनाना चाहता है | हिंदू इतने शक्तिशाली हो जाए की उनपर आक्रमण करने का साहस किसी को न हो | जब हमारा सामर्थ्य अजेय होगा, तभी ऐसी परिस्थिती निर्माण हो सकेगी|
४२. संघ का संस्कारों पर अत्याधिक विश्वास है | जैसे संस्कार हो, वैसी ही मनुष्य की वृत्ति बनती है और एकही वृत्ति के अनेक लोगों के एकत्रित होने से, संघटन के लिए पोषक वातावरण उत्पन्न होता है | सारे देशभर में इस तरह का पवित्र, श्रद्धायुक्त, ध्येयनिष्ठा के रंग में रंगा हुआ, निराशा को नष्ट करनेवाला, हिम्मत को बढानेवाला स्फूर्तिदायक वातावरण तैयार करें | स्वयंसेवक जहां भी जाए, वहीं यह वातावरण अपने साथ ले जाए |
ईश्वरी कार्य
४३. जिन उद्देश्यों को लेकर हम चलना चाहते हैं, उनमें न किसी प्रकार दोष है, न पाप | अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करने का बीडा हमने उठाया है | इसमें कौन सा पाप है?
४४. हमारा विश्वास है की भगवान हमारे साथ है | हमारा काम किसी पर आक्रमण करना नहीं है, अपितु शक्ति और संघटन का है | हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के लिए हमें यह पवित्र कार्य करना चाहिए और अपनी उज्वल संस्कृति की रक्षा कर उसकी वृद्धि करनी चाहिए | तब ही आजके दुनिया में हमारा समाज टिक सकेगा |
४५. मेरी अटल श्रद्धा हो गई है की, हम पर भगवान की कृपा सदा बनी रही है, और आगे भी बनी रहेगी | क्योंकि भगवान हमारे हृदय के भावों को ठिक-ठिक जानते है | हमारा हृदय पवित्र और शुद्ध है | हमारे मन में पाप का लवलेय भी नहीं |
४६. हिंदू जाति की सेवा करने की एकमात्र भावना से हमारा अंतःकरण तथा रोम-रोम व्याप्त है | अन्य से हमारे हृदय में अवकाश ही नहीं | फिर भगवान की कृपा हम पर क्यों न हो?
४७. आज इतनी अधिक अनुकूल परिस्थिती है, की हमारे कार्यकर्ता जहां भी पहुँच जाते हैं, सफलता ही पाते हैं | हमारा उद्देश्य और कार्य नितांत पवित्र तथा जनकल्याणकारी होने के कारण ईश्वरीय है, और यहीं कारण है की हर समय तथा हर परिस्थिती में हम अवश्य सफल होंगे |
४८. संघ के सिद्धांतो पर अटल श्रध्दा रखें | हम अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं | हमें सत्य का अधिष्ठान है | अत: किसी संकट से भयभीत होने का या घबराने का कोई भी कारण नहीं | आपत्तियाँ योंही उपस्थित नहीं होती | वे तो परमात्मा की कृपा सूचित करती है | संकटो द्वारा हमें कसौटीपर उतरने, और उसमें सफल होनेपर आगे का उन्नत मार्ग दिखाने की ईश्वरी इच्छा ही जाहीर होती है |
संघ सबका है
४९. हम यह भी न भूलें की यह विशाल कार्य किसी भी एक मनुष्य या चंद मनुष्यों से हाथो संपन्न होनेवाला नहीं है| उसके लिए तो एकही ध्येय से प्रेरित, लाखों, करोडो लोगों के संघटित प्रयत्नों की आवश्यकता है | मेरी आपसे यहीं प्रार्थना है की इस विशाल भारत के कोने कोने में, ध्येयनिष्ठ तथा बलवान तरुणों में कोई कठिनाई नहीं प्रतीत होगी | तब सुन्दर चित्र सहज रूप में दिखाई देगा |
५०. समस्त भारत वर्ष में संघ शाखाओं का जाल फैलना चाहिए | ऐसे संघटन से ही हमारी दुर्बलता दूर होगी तथा, हमारा समाज सामर्थ्यशाली और प्रभावशाली बनेगा | यह कार्य मात्र एक-दो व्यक्तियों का नहीं है | अपितु यह समस्त हिंदू समाज का है | वृद्धजन करनी चाहिए | तभी यह कार्य जोर-शोर से बढेगा | आज तक के अनुभव से हम यह दावे के साथ कह सकते है की इस कार्य में हम अवश्य सफल होंगे |
५१. यह संघ तो आप सब लोगों का है | संघ में जातिविशेष का महत्त्व नहीं है | यहां व्यक्तिविशेष के बडप्पन को भी स्थान नहीं है | स्ठान विशेष के अभिनिवेश यहां लेशमात्र भी नहीं है |
५२. यदि आप कहेंगे की हम तो अलग रहेंगे और दूर खडे-खडे देखते रहेंगे, तो उससे कुछ लाभ नहीं | यह संघ तो सब हिन्दूओं का है न? तो फिर सब हिंदूओ को इसमें सम्मिलित हो जाना चाहिए |
५३. वयोवृद्ध लोगों को तो संघकार्य में काफी महत्त्व का स्थान है | वे संघ में महत्त्वपूर्ण कार्य का दायित्व उठा सकते हैं | यदि प्रौढ लोग अपनी प्रतिष्ठा तथा व्यवहार कुशलता का उपयोग संघकार्य के हेतु करें, तो युवकजन अधिकाधिक उत्साह से कार्य कर सकेंगे | बडों के मार्गदर्शन से युवकों की शक्ति कई गुना बढती है और तब संघकार्य अपने निश्चित ध्येय की ओर द्रुत गति से बढता चला जाता है | इसलिए किसीने भी संघ के प्रति उदासीनता नहीं रखनी चाहिए | प्रत्येक को उत्साह तथा हिम्मत से आगे आना चाहिए, कार्य में जुट जाना चाहिए|
५४. हमारा कार्य अखिल हिंदू समाज के लिए होने के कारण, उसके किसी भी अंग की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा | सभी हिंदू भाइयों के साथ, फिर वे किसी भी उच्च या नीचे श्रेणी के समझे जाते हों, हमारा बर्ताव हर एक से प्रेम का होना चाहिए | किसी भी हिंदू भाई को नीचा समझकर उसे दुतकारना पाप है |
५५. हिन्दुस्थानपर प्रेम करने वाले हरेक हिंदू से हमारा व्यवहार भाई जैसाही होना चाहिए | लोग कैसा व्यवहार करते हैं, और क्या बोलते हैं, इसका कोई महत्त्व नहीं है |हमारा बर्ताव अगर आदर्श हो, तो हमारे सारे हिंदू भाई हमारी ओर ठीक रूप से आकर्षित होंगे |
५६. सारा हिंदू समाज हमारा कार्यक्षेत्र है | हम सभी हिन्दूओं को अपनाए | अपने निजी मान-अपमान की क्षुद्र भावनाओं को त्यागकर हमें प्रेम तथा नम्रता के साथ अपने समाज के सब भाइयों के पास पहुंचना होगा | कौनसा पत्थर-हृदय हिंदू है, जो तुम्हारे मृदुता तथा नम्रतापूर्ण शब्दों को सुनना इनकार कर देगा?
५७. संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं | संघ के बाहर जो लोग हैं उनके लिए भी है | हमारा यह कर्तव्य भी हो जाता है की उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताए और यह मार्ग है, केवल संघटन का |
५८. केवल संघ का कार्यक्रम ठीक रूप से करने से या नियमित रूप से संघस्थान पर उपस्थित रहने से ही संघकार्य पूरा नहीं हो सकता | हमें तो आसेतुहिमाचल फैले हुए इस विराट हिंदू समाज को संघटित करना है | सच्चा महत्त्वपूर्ण कार्यक्षेत्र तो संघ के बाहर का हिंदू जगत ही है |
कार्यकर्ताओं से अपेक्षा
६०. बोलते-चलते, आचार-व्यवहार करते, तथा प्रत्येक कार्य करते समय हम सावधान रहें की, हमारी किसी भी कृति के कारण संघ के ध्येय तथा कार्य को, कोई क्षति न पहुंचे |
६१. हम आत्मनिरिक्षण करते हुए अपने सभी दुर्गुणों का समूल उच्चाटन कर दें | हम ऐसे सद्गुणों को अपनाए, जो हमारी कार्यवृद्धि को पोषक हों | और जिनके कारण लोगों को हम अपनी ओर आकर्षित कर सकें |
६२. यदि आप अपने अतीत जीवन तथा गत घटनाओं का पुन: पुन: एकांत में अवलोकन करते रहें, तो आपको अपने दोष दिखाई देंगे | जिन्हें अपने दोष दिखाई न पडे और जो अपने आपको सर्वथा दोषरहित समझें, उनका सुधार होना कदापि संभव नहीं | जो अपने चरित्र की त्रुटियों को देख सकते हैं, वहीं अपने चरित्र को सुधार भी सकते हैं |
६३. चरित्र निष्कलंक होने के कारण, अनजाने में भी, हम में यह दुर्भावना छू तक न आनी चाहिए की हम कुछ विशेष है तथा औरों से श्रेष्ठ है | किसी भी दशा में, स्वप्न में भी ऐसा न लगे की हम अन्य लोगों से कहीं अच्छे हैं | मुझे विश्वास हैं की हम में ऐसा अहमभाव रखनेवाला कोई नहीं है | किन्तु यदि कोई ऐसा हो, जो सोचता हो की मैं बहुत कार्य कर रहा हूं, इसलिए औरों से कुछ श्रेष्ठ हूं और इसी नाते दूसरों को नीची तथा तुच्छ दृष्टी से देखने का अधिकारी हूं, तो मैं उसे यह परामर्श दूंगा की वह ऐसे वृथाभिमान को सत्वर निकाल बाहर फेंकें |
६४. आप इस भ्रम में न रहें की लोग हमारी ओर नहीं देखतें | वे हमारे कार्य तथा हमारे व्यक्तिगत आचरणों की ओर आलोचनात्मक दृष्टी से देखा करते हैं | इसीलिए केवल व्यक्तिगत चालचलन की दृष्टी से सावधानी बरतनेसे काम नहीं चलेगा | अपितु सामूहिक एवम् सार्वजनिक जीवन में भी हमारा व्यवहार हमें उदात्त रखना होगा |
६५. हमारा चरित्र इस सीमा तक उज्वल हो, की अन्य लोग प्रभावित होकर हमारे निष्कलंक चरित्र पर मुग्ध हो जाए | वे हमसे मित्रता करने तथा सभी दृष्टी से हमारी हितरक्षा करने के लिए उत्सुक हो जाए |
६६. किसी भी आन्दोलन में साधारण जनता कार्यकर्ता के कार्य का उतना ख्याल नहीं करती जितना की उसके व्यक्तिगत चरित्र में ढूंढने से भी दोष या कलंक छींट तक के न मिलने का |
६७. हमें अपने नित्य के व्यवहार भी ध्येय पर दृष्टी रखकर ही करने चाहिए | प्रत्येक को अपना चरित्र कैसा रहें, इसका विचार करना चाहिए | अपने चरित्र में किसी भी प्रकार की त्रुटी न रहें |
६८. प्रत्येक अधिकारी तथा शिक्षक को सोचना चाहिए की उसका बर्ताव कैसा रहे और स्वयंसेवकों को कैसे तैयार किया जाए | स्वयंसेवकों को पूर्णतः संघटन के साथ एकरूप बनाकर उनमें से प्रत्येक के मन में यह विचार भर देना चाहिए की मैं स्वयंही संघ हूं | प्रत्येक व्यक्ति की आखों के सामने ध्येय का एकही तारा सदा जगमगाता रहें | उस पर उसकी दृष्टी तथा मन पूर्णतः केन्द्रित हो जाए |
६९. हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए की जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है, और जो उद्देश हमारे सामने है, उसे प्राप्त करने के लिए हम कितना काम कर रहें हैं | जिस गति से, तथा जिस प्रमाण में, हम अपने कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं, क्या वह गति या प्रमाण, हमारी कार्यसिद्धी के लिए पर्याप्त है?
७०. हम में इतना आत्मविश्वास और इतनी आकर्षण शक्ति होनी चाहिए की जहां कोई एक बार हमारे बीच आया की बस वह हमारा ही हो गया | हम से दूर होने का फिर वह कभी नाम भी न ले |
७१. आप यह स्पष्ट याद रखें की हमारा निश्चय और स्पष्ट ध्येय ही हमारी प्रगती का मूल कारण है | संघ के आरम्भ से हम, हमारी भावनाए, ध्येय से समरस हो गई है | हम कार्य से एकरूप हो गए है |
७२. यदि आप स्वयं को संघ का कार्यकर्ता समझते है, तो पहले आपको सोचना होगा की आप हर दिन और हर माह कौनसे कार्य कर रहे है? अपने किए हुए कार्य की आपको सदैव जांच पडताल करते रहना चाहिए | केवल हम संघ के स्वयंसेवक है, और मागत इतने वर्षों में संघ ने इतना कार्य किया है, इसी बात में आनंद तथा अभिमान मानते हुए आलस्य में दिन काटना, गिरा पागलपन ही नहीं अपितु कार्यनाशक भी है |
७३. यह खूब समझ लो की बिना कष्ट उठाए और बिना स्वार्थत्याग किए, हमें कुछ भी फल मिलना असंभव है | मैंने स्वार्थ-त्याग शब्द का उपयोग किया है | परंतु हमें जो कार्य करना है वह हमारी हिंदू जाति के स्वार्थ-पूर्ति के लिए है | अत: उसी में हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ भी अन्तिर्भुत है | फिर हमारे लिए भला दुसरा कौनसा स्वार्थ बचता है? यदि इस प्रकार यह कार्य हमारे स्वार्थ का ही है, तो फिर उसके लिए हमें जो भी कष्ट उठाने पडेंगे, उसे हम स्वार्थ-त्याग कैसे कह सकेंगे? वास्तव में यह स्वार्थ-त्याग हो ही नहीं सकता | हमें केवल अपने 'स्व' का अर्थ विशाल करना है | अपने स्वार्थ को हिन्दू राष्ट्र के स्वार्थ में हम एकरूप कर दें |
७४. अब मैं तो आपसे केवल यहीं कहना चाहता हूं की- (१) भविष्य के विषय में किसी तरह का संदेह न रखते हुए आप नियमित रूप से शाखा में आया करें | (२) संघकार्य के प्रत्येक विभाग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसमें निपुण बनने का प्रयास करे | (३) बिना किसी व्यक्तियों की सहायता लिए, स्वतंत्र रीति से एक-दो संघ शाखाए चला सकने की क्षमता प्राप्त करे |
७५. कच्ची नींव पर खडी की गई इमारत शुरू में भलेही सुन्दर या सुघड प्रतीत होती होगी, परंतु बवंडर के पहले ही झोंके के साथ वह भुमिसात हुए बिना खडी करना हो, तो उतनी ही उसकी नींव विस्तृत और ठोस होनी चाहिए |
७६. आसेतु-हिमाचल, अखिल भारतवर्ष, हमारी कार्यभूमि है | हमारा दृष्टीकोन विशाल होना चाहिए | हमें ऐसा लगना चाहिए की समूचा भारतवर्ष हमारा घर है | हम किस सीमा तक और कौनसा कार्य कर सकते हैं, यह पहले निश्चित कर उसके अनुसार हम अपने जीवन का आयोजन करें, और प्रतिज्ञापूर्वक उस कार्य को पूरा करके ही रहें |
हमारी अवनति के कारण
७८. जब तक हम दुर्बल रहेंगे तब तक हम पर आक्रमण करने के लिए बलवानों का मन अवश्य ही ललवाता रहेगा | यह तो निसर्गनियम ही है | केवल बलवानों को गालियाँ देने से अथवा उनकी निंदा करने से क्या लाभ होगा? ऐसा करने मात्र से परिस्थिती बदल नहीं सकती |
७९. शतक बीत गए | हम पर विदेशी आक्रमणों का तांता लगातार क्यों लगा हुआ है? हम दीनदुर्बल तथा मृतप्राय हो गए है इसीलिए न? हमारी सब विमत्तियों की जड़ में हमारी शक्तिहीनता ही है | उसे हमें सर्वप्रथम उखाड फेंकना होगा |
८०. "जीवो जीवस्य जीवनम्" यह प्रकृति का नियम है | अर्थात दुर्बल लोग हमेशा बलवानों का भक्ष्य बनते हैं | संसार में दुर्बलों के लिए गौरव से जीना असंभव है | उन्हें तो बलवानों का दास/सेवक बन कर ही रहना पडता है | सदैव अपमानित तथा असहनीय कष्टों से परिपूर्ण जीवन ही उनके भाग्य में लिखा रहता है |
८१. हमारी सारी अवनति की जड है, हमारी मानसिक दुर्बलता | इस दुर्बलता को हम सर्वप्रथम नष्ट कर दें |
८२. भारतवर्ष, भारतखंड, आर्यावर्त हिन्दुस्थान, आदि नामो के द्वारा एकही अर्थ प्रकट होता है | परंतु उस अर्थ की कल्पना मात्र से हम अकारण हडबड जाते है | बंधन में जकडे हुए तोते जैसी हमारी अवस्था हो रहीं है | हम भ्रम के भंवर में फस कर गोते खा रहे है | हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने पर जो लोग तुले हुए हैं उन्हें गले लगाने के लिए हम मरे जा रहे है | यह सारा हमारी मानसिक दुर्बलता का परिणाम है |
८३. जैसे हमारे विचार, वैसाही हमारा आचरण बनता है | अतीत काल में बहुत बलवान थे, परंतु इस सत्य को आज हम भूल गए है | इसलिए आजके हमारे सारे आन्दोलन दुर्बलतापूर्ण दिखाई देते हैं | हमारे आज के आन्दोलन में न चैतन्य है, और न पुरुषार्थ है |
८४. मन की दुर्बलता ही सबसे अधिक घातक दुर्बलता होती है और वहीं हमारा सबसे बडा दोष है | यदि हम अपने आपको बलवान समझकर संघटन के कार्य में लगन के साथ जुट जाए, तो हमारी शक्ति विराट रूप धारण कर लेगी | फिर कोई भी कार्य हमें असंभव नहीं प्रतीत होगा | असली बात तो यह है की, हम अपने भीतर की शक्ति को भूल रहे है |
८५. आप से मेरी यह प्रार्थना है की आप अपनी स्वार्थी भावना तथा अकर्मण्यता की वृत्ति को समूलन त्याग दे | समाज सेवा कार्य के प्रति अति उदासीन हो जाने के कारण हमारा मन बहुत दुर्बल हो गया है | "समाज चूल्हे में क्यों न जाए , मुझे उससे कुछ भी वास्ता नहीं | बस, मेरा स्वार्थ बना रहें |" इस प्रकार के समाजविषयक उदासीनता के भाव हम में कुट-कुट कर भरे है | इसलिए हमारा समाज आज निर्बल हो गया है |
८६. आज की अवस्था में हम भगवान की सहायता की आशा नहीं कर सकते | उलटे, यह जान कर की इस समाज में स्वार्थी एवं पापीयों की ही भीड है, भगवान हम लोगोंसे अपना मुँह मोड लेंगे | यदि भगवान का यदाकदाचित अवतार हुआ भी, तो हमारी रक्षा के लिए नहीं, बल्की हमें नष्ट करने के लिए ही होगा, क्योंकि दुष्टों का विनाश करना ही उनका प्रण है |
८७. जब तक हम इसी प्रकार के अर्थात् व्यक्तिगत स्वार्थो में लिप्त, दुर्बल एवम् समाजहितो के प्रति उदासीन रहेंगे, और जब तक हम सज्जन नहीं बनेंगे, तब तक हमें दुष्ट समझ कर भगवान हमारे नाश के लिए ही सहायक होंगे | हां, जब हम वास्तव में साधु बनेंगे अर्थात राष्ट्र, धर्मं तथा समाज के कल्याण के लिए अपना सब कुछ होम देने पर उतारू होंगे, तभी भगवान हमारी सहायता करेंगे |
८८. साधू तो वे हैं जो धर्म, राष्ट्र, समाज तथा जनकल्याण का भाव मन में रखते हुए सदा अपना कर्तव्य करने के लिए उदत्त रहें | क्या इस प्रकार के त्यागी और कर्तव्यपरायण लोग हिंदू समाज में पर्याप्त संख्या में हैं? यदि हिन्दुओं की कम से कम आधी जनसंख्या साधुता के उपर्युक्त भावो से भरी होती, तो इस महान जाती पर आघात करने का दु:साहस कोई नहीं करता | फिर भगवान स्वयं धर्मसंरक्षण करने हेतु हमारे बीच उपस्थित हो जाते |
८९. गीता में भगवान कहते है की 'परित्राणाय साधुनां' अर्थात साधुओं के संरक्षण के लिए वे अवतार लेंगे | किन्तु साधू कौन है? साधु किसे कहां जा सकता है ? जिन्हें न समाज या राष्ट्र की चिंता है, और न धर्म या संस्कृति की फिकर है, क्या उन्हें हम साधु कहेंगे? जिन्हें अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ भी सुझता नहीं हैं, ऐसे दुष्टों के संहार के लिए ही तो परमेश्वर का अवतार हुआ करता है | हिंदू समाज में ये सब दुर्गुण पराकाष्ठा तक पहुँच चुके हैं | क्या ऐसे लोगों को दुष्ट न कहां जाए?
उद्यम चाहिए
९०. अन्य लोग इस कार्य को चाहे जितना कठिन बतलावें, परंतु तुम स्वतः इन कठिनाइयों का रोना कभी न रोवो| हमें तो वह कार्य कर दिखाना है, जिसका परिणाम देख कर संसार को दाँतो तले उंगली दबाकर ही रहना पडेगा | क्या तुम्हें पता नहीं की संघ का प्रारम्भ कितने थोडे लोगों से हुआ?
९१. व्यक्ति के जीवन में जिस प्रकार नानाविध बाधाएँ आती हैं, उसी प्रकार संघ के जीवन में भी बाधाओं की कमी नहीं | परंतु बाधाएँ चाहे जितनी आए , संघ का कदम तो आगे बढना ही चाहिए |
९२. यदि सब लोग काम करने में जुट जाए, तो हमारा कार्य बडी शीघ्रता से बढेगा | क्योंकी यह समय हमारे कार्य के लिए बडा अनुकूल है | आज जैसी अनुकूल परिस्थिती पहले कभी न थी| हमें इस सुअवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए |
९३. दुनियां का व्यवहार आप जानते ही हैं | दुकानदार सौ रुपये की चीज़ निन्यानवे रुपये में नहीं देता | दुनिया में हरेक चीज़ की पूरी किमत चुकानी पडती है| अतः जब तक हम अपने समाज में, पर्याप्त शक्ति निर्माण नहीं करते तक तक हमें निरंतर कार्य करते रहना होगा | केवल शरीरबल से काम नहीं चलेगा | साथ में विचारशक्ति की भी आवश्यकता है | प्रथम तो विचारशक्ति ही उत्तम रहनी चाहिए | अत: संघ के स्वयंसेवक प्रथम स्वयं की मानसिक दुर्बलता प्रयत्नपूर्वक हटा दे और बाद में अन्य साथियों में भी अपनें ही समान मानसिक सामर्थ्य उत्पन्न करे |
९४. यदि हमें संसार के सम्मुख यह सिद्ध कर दिखाना है की हिन्दुस्थान हिन्दुओं का राष्ट्र है, तो हमारा कर्तव्य हो जाता है की हम इस कार्य को अपना निजी कार्य समझकर, उसकी सफलता के लिए, आवश्यक आचार-विचारों से अपना जीवन परिपूर्ण करें | फिर यहीं हमारा प्रमुख कर्तव्य हो जाता है |
९५. दूसरी भी एक श्रेणी के लोग होते हैं, जो कहा करते हैं की राष्ट्रसेवा का समय आ जाने पर हमें पुकारो, जहां भी कहो, कूद पडने के लिए हम तैयार है | किन्तु उन्हें यह पूछे बिना मुझसे रहा नहीं जाता की, भाईयों, तुम्हें पुकारेगा कौन? पुकारने का वह अंतिम क्षण लगातार कार्य करने से ही तो निकट आ सकता है | अपने अपने घर में उस समय की बाट जोहने से कहीं वह स्वयं चलकर किसी के पास आएगा? आप निर्णायक क्षण की राह देखते हुए स्वयं तो अपने घर में बैठे रहेंगे, और यह आशा करेंगे की दुसरे लोग अंतिम समय नजदीक लाने के लिए कार्य करते रहें ! क्या यह सारा व्यवहार सुसंगत है ?
९६. कुछ महाशय कहते हैं, 'उसमें क्या रखा है? समय आने दो, सब कुछ ठीक हो जाएगा' | परंतु क्या अपने निजी मामले में भी ये सज्जन इसी प्रकार सोचते हैं? जब अपने आप पर बितती है, तब क्या ये भगवान का नाम लेते हुए चुपचाप बैठे रहते हैं? कभी नहीं ! तब तो ये हर प्रकार की उठापठक और दौडधूप करते दिखाई देते है| अपना काम पूरा करके ही वे दम लेते हैं | व्यक्तिगत स्वार्थ के अतिरिक्त जब देश, धर्म या समाज का सवाल आता है, तभी उन्हें भगवद्शक्ति का बहाना सूझता है | तब हम यह क्यों न कहें, की उपर्युक्त विचारों की जड में सिवा स्वार्थ के कुछ नहीं है?
९७. कुछ सज्जन कहते हैं, की हम तो ईश्वर का भजन पूजन करते हैं, वह हमें अवश्य सफलता देगा | उन सज्जनों को मैं आव्हानपूर्वक कहना चाहता हूँ की वे मुझे एक भी उदाहरण बताए, जहां किसी मनुष्य ने केवल पाठपूजा किया और सौ रुपये उसके चरणों पर आ टपके | ऐसा तो कभी नहीं होता | बिना कष्ट उठाए कार्य होना एकदम असंभव है | हमें बहुत परिश्रम करना होगा | ऐसा तो कभी नहीं होता हां, कार्य करते समय हम भगवान का अवश्य स्मरण रखें और हम जो कुछ भी कार्य करते हैं, उसे परमेश्वर के चरणों पर समर्पित करने की भावना रखें |
९८. मनुष्य अपना छोटासा संसार भी बिना प्रयत्नों के संभाल नहीं सकता | फिर राष्ट्र का विशाल जीवनचक्र अपने प्रयत्नों के बिना अपने आप निरंतर चलता रहेगा, ऐसी अपेक्षा करने में कितनी बुद्धिमानी होगी? राष्ट्र का जीवनचक्र ठीक प्रकार से चलाने के लिए तो, असीम प्रयत्नों की आवश्यकता होती है | बिना प्रयत्नों के सिद्धी कहां ?
९९. अंग्रेजी में एक कहावत है "गॉड हेल्प्स दोज हू हेल्प देम्सेल्व्स" | उसका अर्थ है, जो स्वयं अपनी सहायता करते हैं, उन्हीं की ईश्वर सहायता करता है | मेरी समझ में नहीं आता की भगवान हमारी सहायता क्यों करेंगे? उन्हें क्यों हम पर दया आएगी? हम लोग स्वयं अपनी कौनसी सहायता कर रहे हैं | की भगवान हमें बचाने हेतु दौड पडे ?
१००. वास्तव में प्रत्येक स्वयंसेवक यह सदैव सोचता रहे की वह संघ का दैनिक कार्य कितना करता है और योग्य स्वयंसेवको की संख्या कितनी बढती है | सब लोगों के सामान हम दैनंदिन नित्यकार्य में तो भाग लेते है परंतु क्या हम संख्या बढाने की दृष्टी से विशेष रूप से प्रयत्नशील हैं?
१०१. कैसी ग्लानी की बात है की एक वर्ष के भीतर पांच मित्रो को संघ में लाना, तुम्हारे लिए कठिन-सा मालूम होता है | क्या यहीं है तुम्हारी योग्यता? थोडी इमानदारी के साथ सोचो तो सही | स्वयं अपनी आत्मा के साथ धोखा न करो |
१०२. क्या हम अपने प्रण का
पालन निस्वार्थ बुद्धीसे तन मन धन पूर्वक और ईमानदारी के साथ कर रहे है? अपनी प्रियतम हिंदू जाति को संसार में
अजेय तथा गौरवशाली
बनाने हेतू हम स्वयं कितने कष्ट उठाते है? हम कौनसा कार्य करते है? थोडा अपना दिल टटोलकर देखो तो | क्या इस महान उद्दिष्ट की पूर्ति हेतु
हम अपने मन में कुछ बेचैनी-सी अनुभव
करते है? क्या उस कारण हमारा
जी तडपता रहता है?
१०३.
हम तो "याचि देही, याचि
डोळा" (मराठी शब्द) अर्थात इसी देह से और इन्हीं आखों से अपनी कार्यसिद्धी
देखना चाहते है | बिना
परिश्रम के यह कैसे संभव होगा? संघ
यह नहीं चाहता की किसी क्लब या पाठशाला के सामान वह सदियों तक जैसा तैसा चलता रहे
| संघ की तो यह धधकती हुई आकांक्षा है की
हिंदुत्व की सर्वग्रामी ज्वालाए धू-धू करती हुई , शीघ्रातिशीघ्र देश के कोने-कोने में फैल
जाए |
१०४.
कई लोग कहते हैं की यह कार्य बडा कठिन है, इस मार्ग में असंख्य संकट है | मैं कहता हूं, कठिनाइया क्यों न होगी? हमें तो पहले से ही यह पता होना चाहिए
की हमारा मार्ग कंटकाकीर्ण है| इस
पथ पर गुलाब की पंखुडियाँ बिछी होंगी, ऐसी भला किसने आशा की थी? राष्ट्र को अपना पुर्वगौरव प्राप्त करा
देना, थोथी गप्पे नहीं है
| न वह टकेसेल बिकनेवाली कोई सस्ती चीज़ है
| वह तो अत्यंत अनमोल रत्न है | उसे खरीदने हेतु उसकी पूरी कीमत चुकानी होगी | एक पाई/कौडी कम देने से भी काम नहीं
बनेगा |
१०५. अपने देश के विगत
वैभव को प्राप्त करने हेतु सर्वस्व त्यागकर अनवरत पुरुषार्थ दिखानेवाला, आपके सिवा और कौन हो सकता है? भारत की भाग्यलक्ष्मी को प्राप्त करने का
कार्य तुम्हारे व्यतिरिक्त और कौन कर सकता है? यह तो तुम्हें और तुम्हें ही करना होगा
| कुछ हज़ार स्वयंसेवक खडे हो गए, कुछ शाखाएँ जैसी तैसी चल गई, बस इतने मात्र से हमारा ध्येय हमें प्राप्त होगा,
ऐसी तुम्हारी धारणा है? दूसरे लोग आएंगे और वे आपके देश का गौरव बढाएंगे
ऐसी आप आशा रखते हैं? तो
फिर आपका अस्तित्व
किस लिए है?
१०६.
वास्तव में यह बात है की हम सब कुछ कर सकते है | दस-पाच स्वयंसेवक लाने की तो बात ही
क्या, हम पहाड को भी चुर्ण
कर सकते हैं | स्वयंसेवक
भरती का काम बच्चा भी कर लेगा | प्रश्न
केवल एकही है | हमें
आलस्य छोडना होगा | वहीं
हमारा वास्तविक शत्रु है
|
१०७.
केवल आलस्य के कारण, हम
संघस्थान पर जाने के अतिरिक्त कोई भी विशेष कार्य नहीं कर पाते | यदि हम आलस्य में समय व्यर्थ गवाँना छोड दे,
और अपनी संपूर्ण शक्तियाँ इस कार्य में
लगा दें, तो हम आश्चर्यजनक
प्रगति कर सकेंगे | आलस्य
को त्याग देने के बाद ही सच्चा कार्य प्रारंभ हो जाता है |
१०८.
समाज में जाकर लोगों के साथ किस प्रकार बर्ताव करना चाहिए यह आप भलीभाँति जानते
हैं | शालाओं, विद्यालयों तथा अन्य स्थानों पर कैसा
व्यवहार किया जाता है, यह
आप जानते है | घरवालों
तथा पडोसियों का हृदय किस प्रकार आकर्षित करना, और मित्रो तथा संबंधियों को किस प्रकार अपने गुणों से
प्रभावित करना, आदि
बातें आप खूब जानते
है | फिर भी अपना कार्य
तेज़ी से क्यों नहीं बढता? बस,
एकही कारण है | आपके रोम-रोम में बसा हुआ आलस्य
| उसे नष्ट करो और फिर देखो, तुम में कैसा अभूतपूर्वक परिवर्तन हो
जाता है |
१०९.
'कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन'
यह वाक्य सदा याद रखिए | हम तो केवल कार्य करने के अधिकारी है
| कार्योंका परिणाम या फल हमारे हाथों की
बात नहीं | इसीलिए मनुष्य की परख
उसके हेतु अर्थात हृदय की भावनाओं को देखकर की जाती है |
शाखा
१११. अपने ध्येय के अनुकूल लोगों को संघटित करना हमारा सबसे पहला कार्य है | जो मनुष्य अपने आपको सच्चा हिंदू कहलाता है, उसके पास पहुंचकर हम उसकी आजकी अवनति का ज्ञान करा दें | तथा उसे देशकार्य के लिए प्रवृत्त करें | ऐसे दस-पाच हिंदू इकट्ठे हो जाने पर उनका एक मुखिया नियुक्त करें | वह कुशल कर्णधार हो | इस प्रकार शहर में, देहात में, कही भी संघ का कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है | जब तक इस प्रकारकी संघ शाखाओं का जाल सारे भारतवर्ष में नहीं फैलता है, तब तक हम नहीं कह सकेंगे की हमारा संघटन पूर्ण हो गया है |
११३. महत्त्व इसी बात का है की, चाहे जैसी आपत्तियों का सामना करते हुए
अपनी कार्यपद्धती में हम तनिक भी हेरफेर न
करें और संघकार्य बढाते रहे | संघ चाहता है, केवल संघटन करना | इसके अतिरिक्त और किसी भी क्षेत्र में
उतरने की संघ की इच्छा नहीं है | यह हमारी नीती
संघटन की श्रेष्ठता की द्योतक है, यह बात यदि लोगों
की समझ में आ गई, तब तो हमारे कार्य में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आएगी |
११४. किसी कारण यदि किसी कार्यकर्ता को
स्थलान्तरण करना पडा तो उस शाखा के अन्य स्वयंसेवक "मैं उसका उत्तरदायित्व संभालने के लिए सिद्ध हूं" कहते
हुए, सामने आने चाहिए | मौका पडने पर, हर प्रकार की जिम्मेवारी स्वीकारने की
तत्परता शाखा में दिखाई देनी चाहिए | कार्यकर्ता को चाहिए की वह अपनी शाखा में ऐसाही वातावरण
निर्माण करे |
११५. एक बात की ओर
हमारा विशेष ध्यान रहें | स्वयंसेवकों के मन में केवल किसी खास
व्यक्ति के विषय में ही श्रद्धा अथवा भक्ति उत्पन्न न हो | स्वयंसेवकों में परस्पर श्रद्धा तथा
प्रेम तो अवश्य रहे | किन्तु वह प्रेम कार्य के लिए हो, किसी व्यक्ति के लिए न हो | केवल व्यक्ति के लिए भक्ति तथा प्रेम
होना, संघटन के लिए हानीकारक है | स्वयंसेवक केवल संघनिष्ठ हो| व्यक्तिनिष्ठ, शाखानिष्ठ अथवा स्थाननिष्ठ न हो | ऐसी कोई संघविघातक
बात न चल पडे इसके लिए हमें सतर्क रहना चाहिए |
११६. केवल संख्या
बढाने से ही कार्य नहीं चलेगा | स्वयंसेवकों में
कार्यशक्ति के साथ-साथ कार्य कुशलता भी होनी चाहिए | उसे सब कार्यो में एक-एक कदम क्रमबद्ध रितीसे उठाते हुए आगे बढना चाहिए| हमें संघ की दृष्टिसेही प्रत्येक स्वयंसेवक का चरित्रगठन
करना चाहिए | वह प्रतिदिन क्या करता है | उसके भाव दृढ होते जा रहे है अथवा नहीं? वह अपने मित्रों को संघ में लाता है या नहीं? यदि सब छोटी-मोटी बातों में आप सचेत रहें, तो क्या कार्यवृद्धि असंभव है?
११७. हमें इस ओर
भी ध्यान देना होगा की किसी भी कारण से, हमारा स्वयंसेवक अकर्मण्य न बने | यदि किसी दिन कोई स्वयंसेवक शाखा में अनुपस्थित हो तो तुरंत
उसके घर पहुंचकर वह क्यों नहीं आया इसकी पूछताछ करनी चाहिए | अन्यथा दुसरे दिन भी वह शाखा में नहीं आएगा
| तिसरे दिन उसे संघस्थान पर आने में संकोच प्रतीत
होगा | चौथे दिन वह थोडे भय का
अनुभव करेगा | पाचवे दिन से वह
टालमटोल करने लगेगा | अत: कोई भी स्वयंसेवक शाखा में अनुपस्थित न रहें इसकी हमें चिंता करनी चाहिए |
स्वयंसेवक बंधुओं
११८. स्वयंसेवक
बंधुओं | तुमने एक अत्यंत पवित्र व्रत लिया है | उसका स्मरण करो | तुमने हिंदू राष्ट्र को स्वावलंबी तथा
निर्भय बनाने का निश्चय किया है | और तुम अपने को
सच्चे राष्ट्रवादी मानते हो | किन्तु क्या तुमने
इसका भी विचार किया है की अपने ध्येय और व्रत की तुलना में तुम्हारी तैयारी किस
दर्जे की है ?
११९. सिद्धांत और व्यवहार का समन्वय हम कुशलतापूर्वक अपने जीवन में प्रकट करें |
इसी में मनुष्यत्व है, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है | यदि हम व्यक्तिगत स्वार्थभावना को तिलांजलि दे, तो सिद्धांत और व्यवहार का समन्वय अपने आप हो
जाएगा | हमारा स्वार्थही हमारे
कर्तव्य पथपर आपत्तियों के पहाड खडे करता है | अत :हमारे संघ बंधुओं को चाहिए की प्रथम वे स्वार्थ
की क्षुदग्र मर्यादा को पार करें |
१२०. हम हिंदू
धर्म की रक्षा के लिए इतना कुछ कर जाए की हमारे पश्चात भी हिंदूधर्म में चैतन्य बना रहें | हमें सौपी गई यह धरोहर चोरों के हाथ न लग पाए | हम सावधानी के साथ इसकी रक्षा करते रहें |
१२१. हम में से
प्रत्येक स्वयंसेवक को चाहिए की वह संघ के कार्य को ही अपने जीवन का प्रधान कार्य
समझे |
१२२. प्रतिज्ञा कर
लो, की जब तक तन में प्राण है, संघ को नहीं भूलेंगे |
१२३. किसी भी मोह
से आपको विचलित नहीं होना चाहिए | अपने जीवन में ऐसा
कहने का कुअवसर न आने दीजिए की पांच साल पहले में संघ का सदस्य था | हम लोग जब तक जीवित हैं तब तक स्वयंसेवक
रहेंगे |